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Showing posts with the label आत्मबल

स्वाभिमान (Self-Respect)— आंतरिक शक्ति का मूल स्तंभ —

स्वाभिमान (Self-Respect)  — आंतरिक शक्ति का मूल स्तंभ — स्वाभिमान का अर्थ स्वाभिमान वह गहरी आत्म-मान्यता और गरिमा की भावना है, जो तब जन्म लेती है जब हम अपने मूल्यों, विश्वासों और ईमानदारी के अनुसार जीवन जीते हैं। यह दूसरों की प्रशंसा पर निर्भर नहीं करता, बल्कि इस पर आधारित होता है कि हम स्वयं को कैसे देखते और कैसे समझते हैं। स्वाभिमान के प्रमुख तत्व 1. आत्म-स्वीकृति • अपनी शक्तियों और कमजोरियों को बिना कठोर आलोचना के स्वीकार करना। • अपने अस्तित्व और बीते निर्णयों से संतुष्ट रहना। 2. व्यक्तिगत सीमाएँ (Boundaries) • जहाँ आवश्यक हो “न” कह पाने का साहस। • मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक सीमाओं की रक्षा करना। 3. गरिमामय आचरण • ईमानदारी और न्याय के साथ कार्य करना — चाहे कोई देखे या न देखे। • अपने अंतरात्मा के अनुरूप निर्णय लेना। 4. आत्म-संतुष्टि • दूसरों की प्रशंसा या मान्यता पर निर्भर न रहना। • अपनी अंतरात्मा और विवेक पर विश्वास रखना। 5. आलोचना का संतुलित सामना • बिना टूटे सुनना और समझना। • सीख लेना — परंतु आत्म-मूल्य को न खोना। स्वाभिमान क्यों महत्वपूर्ण है? •...

सरल स्वभाव को कमजोरी न समझें

सरल स्वभाव को कमजोरी न समझें  आज के समय में अक्सर यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति विनम्र, शांत और सरल होता है, उसे लोग कमजोर समझने की भूल कर बैठते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि सरलता कोई कमजोरी नहीं, बल्कि एक गहरा संस्कार है — आत्मबल, संयम और विवेक का प्रतीक। सरल व्यक्ति किसी से डरकर शांत नहीं रहता, वह अपने भीतर के संतुलन और सशक्त संस्कारों के कारण शांति को चुनता है । वह प्रतिक्रिया देने के बजाय प्रत्युत्तर में प्रेम और धैर्य का मार्ग अपनाता है । यह मार्ग आसान नहीं होता, लेकिन यही उसे दूसरों से विशेष बनाता है। याद रखिए, जो सरल है, वही सबसे मजबूत है। क्योंकि उसे दिखावा नहीं करना पड़ता, वह जो है, वही सामने होता है। इसलिए किसी सरल व्यक्ति को कभी कम न आँकें, क्योंकि जब समय आता है, तो वही सबसे बड़ी मिसाल बनता है। सरलता मेरा अभिमान है (कविता) न समझो मुझको कमजोर कभी, ये चुप्पी मेरी पहचान है। संस्कारों में पला बढ़ा मैं, सरलता ही मेरी शान है। न उत्तर दूँ हर कटु वचन का, न रोष दिखाऊँ बात-बात पर, धैर्य है मेरा आभूषण, और शांति है मेरी पतवार पर। तू ललकारे, मैं ...

किरदार: जो शब्दों से नहीं, कर्मों से बनता है

किरदार: जो शब्दों से नहीं, कर्मों से बनता है।  ~ आनंद किशोर मेहता किसी इंसान के बारे में सबसे बड़ी पहचान उसका किरदार होता है — वो जो दिखावे से नहीं, बल्कि उसकी सोच, वफादारी, और आत्मसम्मान से गढ़ा जाता है। किरदार को न तो किसी तराज़ू से तौला जा सकता है और न ही किसी पद, पैसे या प्रभाव से खरीदा जा सकता है। यह तो वर्षों के सच, संघर्ष और सेवा से आकार लेता है। मैंने जीवन में हमेशा यह महसूस किया है कि जो साथ देता है, वह केवल समय काटने के लिए नहीं देता, बल्कि उस साथ को धर्म की तरह निभाता है । जब किसी के लिए खड़ा होता हूँ, तो अंत तक खड़ा रहता हूँ — चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। क्योंकि यह केवल भावनात्मक जुड़ाव नहीं, बल्कि मेरे किरदार की गवाही है। आज जब समाज में गिरगिट जैसे रंग बदलने वाले चेहरे हर मोड़ पर मिलते हैं, तो मेरा मन और अधिक दृढ़ होता है कि मैं वैसा हरगिज न बनूँ। सच्चाई, निष्ठा और आत्मबल से भरा जीवन भले ही कठिन हो, लेकिन वह स्वाभिमान के साथ जिया गया जीवन होता है ।  ग़द्दारी करना आसान हो सकता है, पर वफ़ा निभाना ही सच्ची बहादुरी है । और यही मेरा चुनाव रहा है — हर रिश्ते, हर ज़...

तुम्हारी कहानी, तुम्हें ही पता है

तुम्हारी कहानी, तुम्हें ही पता है जीवन के हर मोड़ पर, लोगों की राय मिलना स्वाभाविक है। कभी कोई तारीफ़ करेगा, तो कोई आलोचना। कोई तुम्हारे निर्णय को सराहेगा, तो कोई उसे ग़लत ठहराएगा। लेकिन क्या कोई तुम्हारी आँखों से दुनिया देख सकता है? क्या कोई तुम्हारे मन के दर्द, संघर्ष और स्थितियों को उतनी ही गहराई से समझ सकता है जितनी तुमने उन्हें जिया है? सच तो यह है कि लोग वही देखते हैं जो बाहर दिखता है, पर जो भीतर चलता है – वो सिर्फ़ तुम्हें पता है। तुम्हारे आर्थिक हालात, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, मानसिक द्वंद्व, सपनों की लड़ाई और आत्मबल की परीक्षा – ये सब तुम्हारा व्यक्तिगत सत्य है, जिसे दूसरों की नज़रों से आँका नहीं जा सकता। अगर तुम हर किसी की बातों को महत्व देने लगो, तो अपने आप से दूर हो जाओगे। हर कोई तुम्हारा मार्गदर्शक नहीं होता – कई बार लोग तुम्हें अपनी अधूरी समझ से तोलते हैं। वे तुम्हारी उस 'कहानी' के सिर्फ एक-दो 'पृष्ठ' पढ़कर पूरा 'निष्कर्ष' सुना देते हैं। पर जीवन कोई खुली किताब नहीं, यह तो भावनाओं, अनुभवों और परिस्थितियों से बुनी गई आत्मगाथा है – जिसे सिर्फ़...

अकेले खड़े रहना: हिम्मत की सबसे ऊँची उड़ान

अकेले खड़े रहना: हिम्मत की सबसे ऊँची उड़ान "जब कदम लड़खड़ाते हैं और कोई साथ नहीं होता, तब भी अगर तुम खुद को संभाल पाओ—तो वही सच्ची बहादुरी है।" कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसी राह पर ले आती है जहाँ न कोई आवाज़ होती है, न कोई परछाईं। हर दिशा एक सन्नाटे से भरी होती है, और हर मोड़ पर अकेलापन घात लगाकर बैठा होता है। ऐसे में हम सिर्फ एक साथ की तलाश करते हैं — एक कंधा, एक मुस्कान, एक आवाज़, जो कहे "मैं हूँ न।" लेकिन जब वह भी नसीब न हो, और तब भी अगर इंसान खुद को गिरने से रोक ले — तो वह कोई साधारण क्षण नहीं होता, वह एक भीतर की क्रांति होती है। यह वही क्षण है जब इंसान को समझ आता है कि उसकी सबसे बड़ी ताकत न किसी बाहरी सहारे में है, न तालियों में, न ही किसी अपनत्व में—बल्कि खुद की सोच, अपने विवेक और उस चुपचाप उठते साहस में है, जो कहता है: "डटे रहो, क्योंकि ये लड़ाई तुम्हारी सबसे असली जीत को जन्म देगी।" जब कोई नहीं होता, तब खुद का होना सीखो अकेले खड़े रहना कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ा आत्म-विकास है। यह वह किला है जिसे इंसान अपने अंदर बनाता है—चुपचाप,...

जब अपने ही चुपचाप चक्रव्यूह रचते हैं…

जब अपने ही चुपचाप चक्रव्यूह रचते हैं… ~ आनंद किशोर मेहता अभिमन्यु का अंत भाले से नहीं, एक चुपचाप रचे गए चक्रव्यूह से हुआ था। उस चक्रव्यूह को किसी एक ने नहीं, बल्कि उन सब ने मिलकर रचा था — जो उसके अपने थे। गुरु, चाचा, कुल-परिजन — जिनके लिए वह लड़ रहा था, उन्हीं के बीच वह घिर गया। कभी-कभी जीवन भी ऐसी ही रणभूमि बन जाता है… जहाँ शत्रु नहीं, बल्कि अपनों की चुप्पी और पीठ पीछे बंधी रणनीति ही सबसे तीखा वार करती है। मेरा अपना चुप्पी से बुना चक्रव्यूह मैंने जीवन में एक ऐसा समय देखा… जहाँ मैं किसी द्वंद्व के विरुद्ध नहीं, बल्कि एक अदृश्य चक्रव्यूह के बीच खड़ा था — जो शब्दों से नहीं, मौन से बना था। आश्चर्य यह नहीं था कि कौन सामने खड़ा है, दर्द तो इस बात का था कि हर दिशा से वही चेहरे दिखे, जिन्हें मैंने अपना कहा था। कंधे जो साथ होने चाहिए थे, कहीं सहमे हुए थे — या फिर किसी और तरफ जुड़ चुके थे। 'अपराध' — बस सत्य के साथ खड़ा होना मुझसे पूछा गया बिना ही मेरे निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए गए। मैंने न किसी को दोषी ठहराया, न कोई आरोप लगाया — बस अपने अंतःकरण की आवाज़ को...