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बचपन की मस्ती: निष्कपट आनंद का संसार

बचपन की मस्ती: निष्कपट आनंद का संसार ~ आनंद किशोर मेहता परिचय बचपन का अर्थ ही मस्ती, उन्मुक्त हँसी, चंचलता और बेफिक्री है। यह जीवन का वह अनमोल समय होता है, जब न कोई चिंता होती है और न ही कोई बोझ। बच्चों की मस्ती केवल खेल-कूद तक सीमित नहीं होती, बल्कि उनके हर हाव-भाव, उनकी हर शरारत, उनकी हर छोटी-बड़ी खुशी में यह झलकती है। बचपन की मस्ती हवा के झोंके जैसी होती है – आज़ाद, निश्छल और सुखद। बच्चों की मस्ती के रूप 1. खेलों में मस्ती बच्चों के लिए खेल केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि उनकी खुशी और सीखने का साधन भी होते हैं। वे लुका-छिपी खेलते हैं, मिट्टी में खेलते हैं, कभी बारिश में भीगते हैं, तो कभी पतंग उड़ाते हैं। मिट्टी में खेलते बच्चों के गंदे हाथ, दरअसल जिंदगी के सबसे पवित्र रंग होते हैं। इन खेलों में वे पूरी तरह खो जाते हैं और यही उनका स्वाभाविक आनंद होता है। 2. दोस्ती में मस्ती बच्चों की दोस्ती बिल्कुल सच्ची और निःस्वार्थ होती है। वे बिना किसी स्वार्थ के एक-दूसरे से जुड़ते हैं और मिलकर हँसते-खेलते हैं। कभी-कभी झगड़ते भी हैं, लेकिन पल भर में फिर से दोस्त बन जाते हैं। उन...

विचारों का रहस्य: आत्ममंथन बनाम वाद-विवाद

कॉपीराइट © आनंद किशोर मेहता विचारों का रहस्य: आत्ममंथन बनाम वाद-विवाद भूमिका यह संसार विचारों का ही खेल है। हर उपलब्धि, हर बदलाव और हर क्रांति की जड़ में एक विचार ही होता है। हम जो कुछ भी हैं, वह हमारी सोच का ही प्रतिबिंब है। लेकिन विचारों की गहराई को समझने के लिए दो महत्वपूर्ण प्रक्रियाएँ सामने आती हैं— आत्ममंथन (Self-Reflection) और वाद-विवाद (Debate) । जब हम खुद से बहस करते हैं, तो हमें गहरे और जटिल सवालों के उत्तर मिलने लगते हैं। जब हम दूसरों से बहस करते हैं, तो नए-नए प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जो हमारी सोच को और अधिक विस्तार देते हैं। यही विचारों का रहस्य है—एक अंतहीन यात्रा, जो हमें सत्य और वास्तविकता के करीब ले जाती है। खुद से बहस: उत्तरों की यात्रा जब कोई व्यक्ति खुद से सवाल करता है, तो वह आत्ममंथन की प्रक्रिया में प्रवेश करता है। यह वह अवस्था होती है, जब हम अपने भीतर झाँककर अपनी सोच को परखते हैं। आत्ममंथन क्यों महत्वपूर्ण है? निर्णय क्षमता को मजबूत करता है – जब हम खुद से पूछते हैं, "क्या मैं सही कर रहा हूँ?" या "इस स्थिति में सबसे सही वि...

शब्दों की गूँज: जहाँ प्रेम मौन में भी बोलता है

शब्दों की गूँज: जहाँ प्रेम मौन में भी बोलता है   क्या शब्दों की कोई सीमा होती है? क्या प्रेम केवल व्यक्त करने से ही समझा जाता है? या फिर मौन में भी इसकी अनुगूँज सुनाई देती है? शब्द, केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि एक जीवंत ऊर्जा हैं। विज्ञान कहता है कि प्रत्येक ध्वनि एक तरंग उत्पन्न करती है, जो ब्रह्मांड में अनंत काल तक प्रवाहित होती रहती है। साहित्य यह सिद्ध करता है कि प्रेम से रचे गए शब्द अमर हो जाते हैं। और समाजशास्त्र यह बताता है कि प्रेमपूर्ण शब्द न केवल संबंधों को संवारते हैं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य और समग्र जीवन को भी संतुलित करते हैं। तो फिर, क्या प्रेम मौन में भी बोल सकता है? आइए, इस विचार को विज्ञान, साहित्य और समाज के तर्कों के साथ समझते हैं। शब्दों की वैज्ञानिक ऊर्जा भौतिकी कहती है कि हर ध्वनि की अपनी एक शक्ति होती है। जापानी वैज्ञानिक मासारू इमोटो के शोध में पाया गया कि जब जल को सकारात्मक और प्रेमपूर्ण शब्द सुनाए गए, तो उसकी संरचना सुंदर हो गई, जबकि नकारात्मक शब्दों से उसमें विकृति आ गई। अब चूँकि हमारा शरीर 70% जल से बना है, तो यह स्पष्ट है कि प्रेम से भरे ...