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Showing posts with the label अनुभव

सोचने लायक बना दिया है…

  सोचने लायक बना दिया है…  ~ आनंद किशोर मेहता जब लोग मेरी कमियाँ गिनाने में व्यस्त होते हैं, तब मैं मुस्कुरा कर यह समझ जाता हूँ — मैंने उन्हें सोचने लायक कुछ तो दिया है। किसी को चुभी है मेरी बात, किसी को खटक गया मेरा बदलाव, और किसी को झुकना पड़ा अपने अहम के सामने। क्योंकि, जो कुछ भी हमें भीतर से हिला दे — वो साधारण नहीं होता। रिश्ते कभी कुदरती मौत नहीं मरते। इन्हें मारता है इंसान खुद — नफरत से, नजरअंदाज़ से, और कभी-कभी, सिर्फ एक गलतफहमी से। कभी-कभी सोचता हूँ — मुझे क्या हक है कि किसी को मतलबी कहूं? मैं खुद रब को सिर्फ मुसीबत में याद करता हूँ! तो फिर दूसरों के स्वार्थ पर क्यों उंगली उठाऊँ? हम जब किसी की सफलता को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वह हमारे भीतर ईर्ष्या बनकर जलती है। और जब उसे अपनाकर देखें — तो वही सफलता प्रेरणा बन जाती है। मैं अक्सर जिनके झूठ का मान रख लेता हूँ, वो सोचते हैं, उन्होंने मुझे बेवकूफ़ बना दिया। पर उन्हें यह कौन समझाए — मैंने रिश्ते की मर्यादा बचाई, ना कि अपनी मूर्खता दिखाई। कोई दवा नहीं है उन रोगों की, जो तरक्की देखकर जलने लगते ह...

कर्ता रोग छोड़ दो।

कर्ता रोग छोड़ दो ।  लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता कभी सोचा है — हम जो कुछ भी करते हैं, क्या वास्तव में वही हमारे नियंत्रण में होता है? हम कहते हैं — "मैंने किया", "मेरे कारण हुआ", "मेरी मेहनत है" । पर यही "मैं" का अभिमान धीरे-धीरे एक रोग बन जाता है — कर्ता रोग । यह ऐसा सूक्ष्म अहंकार है, जो न दिखता है, न पकड़ा जाता है, लेकिन अंदर ही अंदर आत्मा की पवित्रता को छीन लेता है। कर्ता का बोध: प्रारंभिक भ्रम बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि मेहनत करो, कुछ बनो, सफलता तुम्हारे हाथ में है। यह प्रेरणा देने के लिए उपयोगी है, लेकिन धीरे-धीरे यह सोच भीतर बैठ जाती है कि "सब कुछ मैं ही कर रहा हूँ।" हम भूल जाते हैं कि जीवन की साँसें तक हमारे वश में नहीं हैं। जो व्यक्ति खुद को ही सबका कर्ता मान बैठता है, वह जब किसी असफलता या हानि का सामना करता है, तो टूट जाता है। क्योंकि उसका विश्वास "स्वयं" पर था — परम तत्व पर नहीं। कर्तापन और कर्मफल का बंधन जब हम स्वयं को कर्ता मानते हैं, तो हर कार्य से जुड़ाव हो जाता है — फल की अपेक्षा जन्म लेती है। ...

क्या आपने कभी…?

क्या आपने कभी…?  -- आनन्द किशोर मेहता  कुछ सवाल शब्दों में नहीं, आत्मा में जन्म लेते हैं। वे जीवन से नहीं, संवेदनाओं से जुड़े होते हैं। आज मैं ऐसे ही कुछ सवाल आपके सामने रखना चाहता हूँ — न किसी आरोप के रूप में, न किसी ज्ञान के रूप में — बल्कि एक इंसान की पुकार के रूप में। क्या आपने कभी किसी और के दर्द में खुद को टूटते देखा है? न वह आपका रिश्तेदार था, न आपका कोई अपना। फिर भी उसकी आँखों में आँसू देखकर आपके भीतर कुछ पिघल गया। एक मासूम बच्चे की भूख, एक वृद्ध की खामोश आंखें, या किसी मां की बेबस पुकार — क्या कभी कुछ ऐसा था, जिसने आपके दिल को भीतर से हिला दिया? क्या आपने कभी किसी की ख़ुशी के लिए रातों को जागकर दुआ की है? आपको उससे कुछ नहीं चाहिए था। सिर्फ़ इतना चाहिए था कि उसका जीवन थोड़ा मुस्कुरा ले, उसके जीवन में उजाला आ जाए। आपने अपने आंसुओं में उसके सुख की प्रार्थना की — और वह जान भी न सका कि कोई, कहीं, उसकी ख़ुशी के लिए रोया था। क्या आपने कभी किसी को आगे बढ़ाने के लिए खुद पीछे हटने का निर्णय लिया है? कभी किसी को उड़ान देने के लिए अपने पंख काट लिए हों? आपने उसकी क्षमताओं...

तुम्हारी कहानी, तुम्हें ही पता है

तुम्हारी कहानी, तुम्हें ही पता है जीवन के हर मोड़ पर, लोगों की राय मिलना स्वाभाविक है। कभी कोई तारीफ़ करेगा, तो कोई आलोचना। कोई तुम्हारे निर्णय को सराहेगा, तो कोई उसे ग़लत ठहराएगा। लेकिन क्या कोई तुम्हारी आँखों से दुनिया देख सकता है? क्या कोई तुम्हारे मन के दर्द, संघर्ष और स्थितियों को उतनी ही गहराई से समझ सकता है जितनी तुमने उन्हें जिया है? सच तो यह है कि लोग वही देखते हैं जो बाहर दिखता है, पर जो भीतर चलता है – वो सिर्फ़ तुम्हें पता है। तुम्हारे आर्थिक हालात, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, मानसिक द्वंद्व, सपनों की लड़ाई और आत्मबल की परीक्षा – ये सब तुम्हारा व्यक्तिगत सत्य है, जिसे दूसरों की नज़रों से आँका नहीं जा सकता। अगर तुम हर किसी की बातों को महत्व देने लगो, तो अपने आप से दूर हो जाओगे। हर कोई तुम्हारा मार्गदर्शक नहीं होता – कई बार लोग तुम्हें अपनी अधूरी समझ से तोलते हैं। वे तुम्हारी उस 'कहानी' के सिर्फ एक-दो 'पृष्ठ' पढ़कर पूरा 'निष्कर्ष' सुना देते हैं। पर जीवन कोई खुली किताब नहीं, यह तो भावनाओं, अनुभवों और परिस्थितियों से बुनी गई आत्मगाथा है – जिसे सिर्फ़...

पहलगाम की पुकार: एकता पर हमला, इंसानियत का इम्तिहान

पहलगाम की पुकार: एकता पर हमला, इंसानियत का इम्तिहान  (22 अप्रैल 2025 की आतंकी घटना पर आधारित) 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम के बाइसारन घाटी में हुए आतंकी हमले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह घटना न केवल एक आतंकी हमला है, बल्कि यह हमारे देश की एकता, अखंडता और सहिष्णुता पर सीधा प्रहार है। ऐसे समय में हमें एकजुट होकर आतंकवाद के खिलाफ सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है। यह हमला हमें याद दिलाता है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कोई ढील नहीं दी जा सकती। हमें अपने सुरक्षा तंत्र को और मजबूत करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि निर्दोष नागरिकों की जान की सुरक्षा सर्वोपरि हो। इस दुखद घटना में जान गंवाने वालों के परिवारों के प्रति हमारी गहरी संवेदनाएं हैं। हम उनके दुख में सहभागी हैं और प्रार्थना करते हैं कि घायल जल्द से जल्द स्वस्थ हों। इस हमले के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिले, यही हमारी न्याय प्रणाली से अपेक्षा है। आज समय आ गया है जब देश के हर नागरिक को इस बात का संकल्प लेना होगा कि नफरत, हिंसा और आतंक के विरुद्ध हम एकजुट हैं। धर्म, भाषा, क्षेत्र – इन सबसे ऊपर उठकर हमें...

जब अपने ही चुपचाप चक्रव्यूह रचते हैं…

जब अपने ही चुपचाप चक्रव्यूह रचते हैं… ~ आनंद किशोर मेहता अभिमन्यु का अंत भाले से नहीं, एक चुपचाप रचे गए चक्रव्यूह से हुआ था। उस चक्रव्यूह को किसी एक ने नहीं, बल्कि उन सब ने मिलकर रचा था — जो उसके अपने थे। गुरु, चाचा, कुल-परिजन — जिनके लिए वह लड़ रहा था, उन्हीं के बीच वह घिर गया। कभी-कभी जीवन भी ऐसी ही रणभूमि बन जाता है… जहाँ शत्रु नहीं, बल्कि अपनों की चुप्पी और पीठ पीछे बंधी रणनीति ही सबसे तीखा वार करती है। मेरा अपना चुप्पी से बुना चक्रव्यूह मैंने जीवन में एक ऐसा समय देखा… जहाँ मैं किसी द्वंद्व के विरुद्ध नहीं, बल्कि एक अदृश्य चक्रव्यूह के बीच खड़ा था — जो शब्दों से नहीं, मौन से बना था। आश्चर्य यह नहीं था कि कौन सामने खड़ा है, दर्द तो इस बात का था कि हर दिशा से वही चेहरे दिखे, जिन्हें मैंने अपना कहा था। कंधे जो साथ होने चाहिए थे, कहीं सहमे हुए थे — या फिर किसी और तरफ जुड़ चुके थे। 'अपराध' — बस सत्य के साथ खड़ा होना मुझसे पूछा गया बिना ही मेरे निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए गए। मैंने न किसी को दोषी ठहराया, न कोई आरोप लगाया — बस अपने अंतःकरण की आवाज़ को...

एक शिक्षक की नज़र से: वो जो हर बच्चे में भविष्य देखता है

एक शिक्षक की नज़र से: वो जो हर बच्चे में भविष्य देखता है  लेखक ~ आनंद किशोर मेहता © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. क्या आपने कभी… शिक्षक की आँखों में झाँक कर देखा है? शायद नहीं। क्योंकि वहाँ कोई माँग नहीं होती। कोई शिकायत नहीं। सिर्फ एक उम्मीद होती है — कि यह बच्चा एक दिन उड़ान भरेगा। यह लेख एक शिक्षक की उस चुप सेवा की कहानी है, जो न दिखती है, न कही जाती है। यह उनके लिए नहीं है जो सिर्फ परीक्षा परिणाम देखते हैं, यह उनके लिए है जो यह समझते हैं कि एक अच्छा इंसान बनाना, सबसे बड़ी शिक्षा है। तो पढ़िए... अपने बच्चे की उन भावनाओं को समझने के लिए जो वह शब्दों में नहीं कह पाता, पर जो उसके शिक्षक हर रोज़ पढ़ लेते हैं। "बच्चा सिर्फ एक रोल नंबर नहीं होता, वो एक दुनिया होता है – मासूम, उम्मीदों से भरी, और हमारे हर व्यवहार से आकार लेती हुई।" "जो बच्चे घर में उपेक्षित हैं, वे स्कूल में किसी टीचर की मुस्कान में माँ-बाप ढूँढ़ते हैं।" हर सुबह एक शिक्षक जब स्कूल पहुँचता है... ...तो वह केवल पाठ्यक्रम का भार नहीं उठाता, वह अपने कंधों पर आने...

अनुभवों की आँच में पका हुआ सत्य

अनुभवों की आँच में पका हुआ सत्य  ~ आनंद किशोर मेहता हम अक्सर सोचते हैं कि सत्य केवल किताबों, शोधों या बड़े-बड़े मंचों पर बोला जाता है — पर मेरे अनुभव ने सिखाया है कि सत्य वहाँ भी होता है जहाँ आँसू चुपचाप बहते हैं , जहाँ एक मासूम बच्चा स्कूल की ओर निहारता है, और जहाँ एक शिक्षक अपने भीतर की सारी थकावट भूलकर बच्चों की आँखों में भविष्य देखता है। मेरे जीवन का विज्ञान कुछ और है — यह हृदय की गणना करता है, आत्मा की गति नापता है, और संवेदना के परमाणुओं को जोड़कर एक जीवनद्रव्य बनाता है। यहाँ नियम कोई सूत्र नहीं, बल्कि प्रेम, धैर्य और सेवा हैं। सत्य की खोज कहाँ से शुरू होती है? न किसी प्रयोगशाला से, न किसी पुरस्कार से। बल्कि तब, जब एक बच्चा पूछता है – "सर, अगर आप नहीं होते तो हमें कोई नहीं पढ़ाता। घर पर तो कोई पूछता ही नहीं..." उस एक वाक्य ने मुझे झकझोर दिया था। किसी को विज्ञान में अनिश्चितता दिखती है, पर मुझे बच्चों के भविष्य में विश्वास की तलाश दिखती है। मेरे छोटे से स्कूल का बड़ा सच यह स्कूल लक्जरी से भरा नहीं है – पर इसकी दीवारों पर जो प्रेम की ध्...