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मौन सेवा

मौन सेवा                                                        आनंद किशोर मेहता सेवा वो — जो चुपचाप हो जाए, बिन बोले भी, कुछ बात हो जाए। न माँग हो, न कोई दिखावा, दिल से निकले — बस दुआ का साया। जहाँ न हाथ जुड़ें, न शब्द बहें, फिर भी दिल के दीप जलें। कोई थक कर जब चुप हो जाए, तो बस साथ चलो — वही साथ निभाए। न कर सको कुछ — तो ग़म न दो, अपनी वजह से कोई जख़्म न दो। हर पल किसी का सहारा बनो, कभी साया, कभी किनारा बनो। जो मौन में भी सुकून दे जाए, वही सेवा मालिक को भाए। जहाँ होने भर से शांति जगे, वहीं रूह को राहत लगे। न कुछ पाओ, न कुछ जताओ, बस चुपचाप किसी का बोझ उठाओ। जहाँ न दिखावा, न नाम रहे, बस करुणा ही हर काम रहे। इसी में इबादत का रंग खिले, इसी में बंदा रब से मिले। संक्षिप्त भावार्थ यह कविता बताती है कि सच्ची सेवा दिखावे या शब्दों से नहीं, मौन, करुणा और निस्वार्थ भाव से होती है। जब हम कुछ न कर सकें, तब भी किसी को दुख न देना ही सेवा का...

कविता श्रृंखला: अनकहे एहसास: दिल की बात

कविता श्रृंखला:  अनकहे एहसास: दिल की बात  मैं दिया हूँ!  मेरी दुश्मनी तो सिर्फ अँधेरे से है, हवा तो बेवजह ही मेरे खिलाफ है। – गुलज़ार कविता: मैं दिया हूँ ~ आनंद किशोर मेहता मैं दिया हूँ... मुझे बस अंधेरे से शिकायत है, हवा से नहीं। वो तो बस चलती है… कभी मेरे खिलाफ, कभी मेरे साथ। मैं चुप हूँ, पर बुझा नहीं, क्योंकि मेरा काम जलना है। ताकि किसी राह में भटके हुए को रौशनी मिल सके। मुझे दिखावा नहीं आता, ना ही शोर मचाना। मैं जलता हूँ भीतर से — सच, प्रेम और सब्र के संग। हवा सोचती है, कि वो मुझे गिरा सकती है। पर उसे क्या पता — मैं हर बार राख से भी फिर से जल उठता हूँ। मैं दिया हूँ… नम्र हूँ, शांत हूँ, मगर कमजोर नहीं। मैं अंधेरे का दुश्मन हूँ, इसलिए उजाले का दोस्त बना हूँ। तू चाहे जितनी बार आज़मा ले, मैं फिर भी वही रहूँगा — धीरे-धीरे जलता, पर हर दिल को छूता। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. "दीया कभी अंधेरे से डरता नहीं,… वो तो उसी के बीच खुद को साबित करता है।" "हवा से शिकवा नहीं,… क्योंकि उसे नहीं पता — कि मेरी लौ मेरी श्रद...

भीतर देखो, दुनिया बदल जाएगी।

1. भीतर का सच: बुराई कहीं और नहीं, भीतर है। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. कभी-कभी जीवन हमें उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ हम दुनिया को कोसते हैं, हालात को दोष देते हैं, और दूसरों को अपनी तकलीफ़ों का कारण मान लेते हैं। हम सोचते हैं कि सारी बुराई इस दुनिया में फैली है — लोग स्वार्थी हैं, समाज गलत है, व्यवस्था दूषित है। लेकिन क्या हमने कभी आईने के सामने खड़े होकर खुद की आंखों में झांकने की कोशिश की है? एक युवक रोज़ दुनिया की आलोचना करता, जीवन से असंतुष्ट रहता। एक दिन उसने एक आईना खरीदा — सुंदर, चमकदार और बेहद स्पष्ट। जैसे ही वह आईने के सामने खड़ा हुआ, उसे अपने चेहरे पर एक गहरी कालिमा दिखाई दी। घबराया हुआ वह पीछे हट गया, मगर देखा — उसका असली चेहरा तो साफ था। फिर आईने में काला चेहरा क्यों? कई बार आईना सिर्फ चेहरा नहीं दिखाता, अंतर्मन का प्रतिबिंब भी प्रस्तुत करता है। यह घटना उस युवक के लिए आत्मबोध की शुरुआत थी। उसने समझा — “जिस बुराई को मैं दुनिया में ढूंढ रहा था, उसका बीज तो मेरे भीतर ही था।” संत कबीर की वाणी गूंजती है: "बुरा जो देखन मैं चला, बु...