Skip to main content

Posts

Showing posts with the label संवेदनाएँ

क्या यह इंसानों की बस्ती है?

क्या यह इंसानों की बस्ती है?  ~ ANAND KISHOR MEHTA सुबह के साथ उम्मीद जगती है। हर मोहल्ला, हर गली, हर घर – एक नई शुरुआत की संभावना लेकर उठता है। लेकिन कुछ जगहों पर सुबह की यह संभावना शोर में दब जाती है। जैसे ही सूरज निकलता है, किसी के घर में गालियाँ गूंजती हैं, तो कहीं दरवाज़े पटके जाते हैं। मोहल्ला जैसे झगड़ों का अखाड़ा बन चुका हो – न किसी को सुनना है, न समझना है – सिर्फ बोलना है, चिल्लाना है, थोपना है। ऐसा लगता है मानो लोग अपनी-अपनी जिंदगी की हताशा, कुंठा और अधूरी इच्छाओं का बोझ एक-दूसरे पर फेंककर हल्का होना चाहते हैं। कोई अपनी बात न माने जाने पर खुद को चोट पहुँचा देता है – जैसे स्वयं से ही बदला ले रहा हो। कोई दूसरों की आवाज दबाकर खुद को सही सिद्ध करता है – मानो बहस जीतना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो। कोई चुप रहता है, पर भीतर ही भीतर घुटता है, अपनी चुप्पी से नफरत करने लगता है। और कोई, नशे में डूबकर खुद को ‘शांत’ करने की कोशिश करता है – लेकिन वह नशा केवल थोड़ी देर के लिए चीखों की आवाज धीमी करता है, हालात नहीं बदलता। क्या यही मानवता है? क्या यही सभ्यता है? क्या इस झगड़े...

बस किसी ने नहीं सुनी मेरी अंतरात्मा

बस किसी ने नहीं सुनी मेरी अंतरात्मा… कभी-कभी लगता है जैसे मैं एक ऐसे कमरे में हूँ जहाँ सब कुछ है—दीवारें, छत, खिड़की, दरवाज़ा भी… पर फिर भी कोई दस्तक नहीं देता। हर ओर चुप्पी है—भीतर भी, बाहर भी। मैंने कोशिश की कि कोई मेरी आँखों में झाँके… पर लोग सिर्फ चेहरों को पढ़ते हैं, अंतरात्मा की चुप्पी को नहीं। मैंने मुस्कराहट ओढ़ ली, ताकि कोई पूछे—"सब ठीक है न?" पर सबने मान लिया कि मैं सच में ठीक हूँ। सच कहूँ? मैं थक गया हूँ। हर बार खुद को समझाने से… हर बार सबके सामने मज़बूत दिखने की कोशिश से… हर बार खुद के आँसू खुद ही पोंछने से… कभी लगता है—क्या कोई है जो मेरे भीतर की आवाज़ को सुन सके? कोई, जो मुझे बिना बोले समझ सके? शब्द अब कम पड़ते हैं , लेकिन आंसू कभी नहीं थकते। भीड़ है, रिश्ते हैं, आवाजें हैं… पर कोई “मेरा” नहीं लगता। फिर भी मैं जी रहा हूँ… क्यों? क्योंकि कहीं न कहीं, दिल के किसी कोने में एक उम्मीद अभी बाकी है… शायद कोई एक दिन आएगा— जो चुप रहेगा, पर सब समझ जाएगा… जो सलाह नहीं देगा, बस पास बैठ जाएगा… जो मेरी अंतरात्मा की थकान , मेरी चुप्पी को पढ...

अनुभवों की आँच में पका हुआ सत्य

अनुभवों की आँच में पका हुआ सत्य  ~ आनंद किशोर मेहता हम अक्सर सोचते हैं कि सत्य केवल किताबों, शोधों या बड़े-बड़े मंचों पर बोला जाता है — पर मेरे अनुभव ने सिखाया है कि सत्य वहाँ भी होता है जहाँ आँसू चुपचाप बहते हैं , जहाँ एक मासूम बच्चा स्कूल की ओर निहारता है, और जहाँ एक शिक्षक अपने भीतर की सारी थकावट भूलकर बच्चों की आँखों में भविष्य देखता है। मेरे जीवन का विज्ञान कुछ और है — यह हृदय की गणना करता है, आत्मा की गति नापता है, और संवेदना के परमाणुओं को जोड़कर एक जीवनद्रव्य बनाता है। यहाँ नियम कोई सूत्र नहीं, बल्कि प्रेम, धैर्य और सेवा हैं। सत्य की खोज कहाँ से शुरू होती है? न किसी प्रयोगशाला से, न किसी पुरस्कार से। बल्कि तब, जब एक बच्चा पूछता है – "सर, अगर आप नहीं होते तो हमें कोई नहीं पढ़ाता। घर पर तो कोई पूछता ही नहीं..." उस एक वाक्य ने मुझे झकझोर दिया था। किसी को विज्ञान में अनिश्चितता दिखती है, पर मुझे बच्चों के भविष्य में विश्वास की तलाश दिखती है। मेरे छोटे से स्कूल का बड़ा सच यह स्कूल लक्जरी से भरा नहीं है – पर इसकी दीवारों पर जो प्रेम की ध्...