Skip to main content

Posts

Showing posts with the label प्रेरणादायक लेख

कोई दवा नहीं है उसके रोगों की…~ जो जलता है तरक्की देखकर लोगों की!

कोई दवा नहीं है उसके रोगों की…  ~ जो जलता है तरक्की देखकर लोगों की!  ~ आनंद किशोर मेहता हर इंसान की यात्रा अलग होती है। कोई कठिनाइयों को चीरता हुआ आगे बढ़ता है, कोई अवसरों का सदुपयोग करके उन्नति करता है, तो कोई आत्मचिंतन और प्रयास से अपने जीवन को सँवारता है। लेकिन समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों की तरक्की देखकर प्रेरणा लेने के बजाय, भीतर ही भीतर जलने लगते हैं। यह जलन कोई सामान्य भावना नहीं होती — यह एक मानसिक रोग बन जाती है। और दुख की बात यह है कि इस रोग की कोई दवा नहीं होती , क्योंकि यह मन से उत्पन्न होती है और वहीं पलती रहती है। ईर्ष्या: आत्मविकास का सबसे बड़ा बाधक ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने प्रयास पर ध्यान नहीं देता। वह दूसरों की उन्नति को देखकर दुखी होता है, दूसरों को गिराने की सोचता है, और धीरे-धीरे अपनी ऊर्जा , शांति और आत्मबल खो देता है। जबकि तरक्की करने वाले लोग हर आलोचना को प्रेरणा बना लेते हैं और बिना किसी से मुकाबला किए अपनी राह चलते रहते हैं। सफलता पर नहीं, संघर्ष पर गौर कीजिए जो व्यक्ति सफल हुआ है, उसकी मेहनत और संघर्ष की अनदेखी...

जीवन में शांति चाहिए तो उनसे दूरी बना लो, जो सहयोग भूल जाते हैं मगर एहसान गिनाते रहते हैं।

जीवन में शांति चाहिए तो उनसे दूरी बना लो, जो सहयोग भूल जाते हैं मगर एहसान गिनाते रहते हैं।  ~ आनंद किशोर मेहता यह एक साधारण-सी लगने वाली पंक्ति, वास्तव में जीवन का गहन अनुभव है। कुछ लोग आपके संघर्ष में साथ नहीं देते, लेकिन जब उनका कोई छोटा-सा योगदान होता है, तो उसे जीवन भर याद दिलाते हैं। ऐसे लोग सहयोग नहीं करते, बल्कि अपने “एहसान” जताकर आपके आत्मसम्मान को धीरे-धीरे खत्म करते हैं। यह भावनात्मक रूप से थका देने वाला अनुभव होता है। आप हर पल खुद को उनके ऋण में बंधा हुआ महसूस करते हैं, भले ही आपने उनसे कहीं अधिक किया हो। इसलिए यह जरूरी है कि: ऐसे लोगों से विनम्र दूरी बनाई जाए। अपने आत्मसम्मान की रक्षा की जाए। उन संबंधों को संजोया जाए जो निःस्वार्थ, प्रेमपूर्ण और संतुलन देने वाले हों। शांति वहीं मिलती है, जहां रिश्तों में स्वतंत्रता, समझ और सच्चा सम्मान हो — न कि उपकार का बोझ। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. : शांति की चाह ~ आनंद किशोर मेहता जो कहते थे, "हम साथ हैं," आज वही हर बात में एहसान जताते हैं। भूल गए वो पल, जब टूटे थे हम, और उनका नाम लेकर मुस...

भीतर देखो, दुनिया बदल जाएगी।

1. भीतर का सच: बुराई कहीं और नहीं, भीतर है। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. कभी-कभी जीवन हमें उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ हम दुनिया को कोसते हैं, हालात को दोष देते हैं, और दूसरों को अपनी तकलीफ़ों का कारण मान लेते हैं। हम सोचते हैं कि सारी बुराई इस दुनिया में फैली है — लोग स्वार्थी हैं, समाज गलत है, व्यवस्था दूषित है। लेकिन क्या हमने कभी आईने के सामने खड़े होकर खुद की आंखों में झांकने की कोशिश की है? एक युवक रोज़ दुनिया की आलोचना करता, जीवन से असंतुष्ट रहता। एक दिन उसने एक आईना खरीदा — सुंदर, चमकदार और बेहद स्पष्ट। जैसे ही वह आईने के सामने खड़ा हुआ, उसे अपने चेहरे पर एक गहरी कालिमा दिखाई दी। घबराया हुआ वह पीछे हट गया, मगर देखा — उसका असली चेहरा तो साफ था। फिर आईने में काला चेहरा क्यों? कई बार आईना सिर्फ चेहरा नहीं दिखाता, अंतर्मन का प्रतिबिंब भी प्रस्तुत करता है। यह घटना उस युवक के लिए आत्मबोध की शुरुआत थी। उसने समझा — “जिस बुराई को मैं दुनिया में ढूंढ रहा था, उसका बीज तो मेरे भीतर ही था।” संत कबीर की वाणी गूंजती है: "बुरा जो देखन मैं चला, बु...

दिल की खामोशी और जीवन की सच्चाई

दिल की खामोशी और जीवन की सच्चाई (A Soul-Touching Reflection) कभी-कभी जीवन के शोर में सबसे स्पष्ट आवाज़... खामोशी होती है। वो खामोशी जो शब्दों से परे होती है – जो सीधे अंतरात्मा से बात करती है। जब सब कुछ पास होकर भी अधूरा लगे, तो समझो रूह किसी और ऊँचाई को छूना चाहती है। "जब दिल खामोश हो जाए, तो समझो वह सबसे गहरा सच बोल रहा है।" हम रोज़ हँसते हैं, बोलते हैं, मिलते हैं... पर क्या कभी अपने भीतर झाँक कर देखा है? वहाँ एक मासूम दिल बैठा है, जिसने बचपन से अब तक सिर्फ एक ही चीज़ चाही है – सच्चा प्रेम। ना वह दिखावे का प्रेम, ना शर्तों में बँधा हुआ प्रेम, बल्कि एक निर्विकार, निर्मल, रूहानी प्रेम , जो बिना कुछ माँगे, बस बाँटना जानता है। "सच्चा प्रेम वह है जो छूता भी नहीं, लेकिन फिर भी दिल को बदल देता है।" हम अपने संघर्षों में इतने उलझ गए हैं कि जीवन की असल सुंदरता छूट गई — किसी की आँखों में सुकून देना, किसी के आँसू पोंछ देना, और बिना बोले किसी का हाथ थाम लेना। "जिसने दूसरों के दर्द को बिना कहे समझा, वही इंसानियत की ऊँचाई पर है।" ...

डर नहीं, दिशा दें — पढ़ाई को बोझ नहीं, प्रेरणा बनाएं

डर नहीं, दिशा दें — पढ़ाई को बोझ नहीं, प्रेरणा बनाएं ~ आनंद किशोर मेहता आजकल की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में माँ-बाप खुद भी परेशान हैं, और अनजाने में अपने इस तनाव को बच्चों के दिलों में एक खतरनाक ज़हर की तरह उतार रहे हैं। यह ज़हर पढ़ाई के नाम पर डर पैदा करता है — इतना गहरा डर, जो बच्चों के जीवन को ही निगल जाता है। "बच्चा हो या फूल — दोनों को खिलने के लिए स्नेह और समय चाहिए, सज़ा नहीं।" पढ़ाई के नाम पर अपनी अधूरी इच्छाओं को बच्चों के भविष्य पर थोप देना और फिर उनसे वही पूरा करवाने की ज़िद में बच्चों पर अत्यधिक दबाव बनाना — यह उनके मासूम मन पर अत्याचार के समान है। नतीजा? आत्म-हत्या जैसे भयावह रास्ते। "जो शिक्षा डर से शुरू होती है, वह सिर्फ डर को बढ़ाती है — ज्ञान को नहीं।" बचपन में ही बच्चों से खेलने की आज़ादी छीन ली जाती है। मोबाइल हाथ में देकर हम उन्हें शारीरिक और मानसिक विकास से वंचित कर देते हैं। जब बच्चा होमवर्क नहीं करता, तो उसे डांटते हैं, डराते हैं, सज़ा देते हैं — चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक। और यह सब एक ऐसी उम्र में जब उसका मन हर चोट को गहराई से ...

पढ़ाई से दोस्ती: डर नहीं, आनंद

: पढ़ाई से दोस्ती: डर नहीं, आनंद  ~ आनंद किशोर मेहता कभी सोचा है, जब हम किसी खेल में मग्न होते हैं, तो समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है? लेकिन जब किताबें सामने रखी होती हैं, तो वही समय भारी क्यों लगने लगता है? इसका उत्तर है – दृष्टिकोण । पढ़ाई को अगर हम बोझ समझें, तो वह सचमुच भारी लगती है। लेकिन जब हम उससे दोस्ती कर लें, तो वह एक सुंदर यात्रा बन जाती है – ज्ञान की, समझ की और आत्म-निर्माण की। पढ़ाई क्या है? पढ़ाई केवल पाठ्यपुस्तकों को रट लेना नहीं है। यह तो एक अद्भुत खोज है – अपने अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने की, दुनिया को समझने की, और सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने की। पढ़ाई से डर क्यों लगता है? अक्सर बच्चे परीक्षा, नंबर या डाँट की चिंता में पढ़ाई से घबरा जाते हैं। उन्हें लगता है कि गलती करने पर उन्हें असफल मान लिया जाएगा। लेकिन सच तो यह है कि गलती करना सीखने का पहला कदम है । जैसे साइकिल चलाना सीखने में गिरना स्वाभाविक है, वैसे ही पढ़ाई में गलतियाँ सीखने का हिस्सा हैं। पढ़ाई से दोस्ती कैसे करें? जिज्ञासा जगाएं: हर विषय को प्रश्नों के रूप में देख...

भावनाओं की गहराई और संस्कारों की भूमिका

भावनाओं की गहराई और संस्कारों की भूमिका लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता जियो तो ऐसे जियो: अनुभव, सेवा और संवेदनाओं से संवरता जीवन बचपन की एक मासूम चाह हर बच्चा चाहता है कि उसके माता-पिता, उसका परिवार और समाज उसे "अच्छा" कहें। उसे प्यार करें, उसकी तारीफ़ करें और सम्मान दें। यह केवल एक चाह नहीं, बल्कि उसकी पहचान और आत्मविश्वास का आधार बनती है। अच्छे संस्कार, हर हाल में साथ निभाते हैं—बचपन से बुढ़ापे तक। बचपन से मन में यह भाव बैठ जाता है कि "मैं अच्छा हूँ तभी मुझे प्यार मिलेगा।" यही सोच उसके कर्मों का मार्गदर्शन करती है। जब सराहना नहीं मिलती लेकिन जब कोई बच्चा या युवा नेक कर्म करता है, फिर भी अगर उसे सराहना नहीं मिलती, तो उसके भीतर धीरे-धीरे पीड़ा भरने लगती है। वह सोचता है—"शायद मैं अच्छा नहीं हूँ!" यह भाव आत्म-संशय को जन्म देता है। प्रेम की भूख जब पूरी नहीं होती, तब इंसान धीरे-धीरे भीतर से टूटने लगता है।    ऐसी अवस्था में वह अपनों को ही दोषी मानने लगता है। उसका व्यवहार कठोर होने लगता है, और वह भीतर ही भीतर तन्हा हो जाता है। रिश्तों में दरार और दूरी धी...