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Showing posts with the label सकारात्मक सोच

कोई दवा नहीं है उसके रोगों की…~ जो जलता है तरक्की देखकर लोगों की!

कोई दवा नहीं है उसके रोगों की…  ~ जो जलता है तरक्की देखकर लोगों की!  ~ आनंद किशोर मेहता हर इंसान की यात्रा अलग होती है। कोई कठिनाइयों को चीरता हुआ आगे बढ़ता है, कोई अवसरों का सदुपयोग करके उन्नति करता है, तो कोई आत्मचिंतन और प्रयास से अपने जीवन को सँवारता है। लेकिन समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों की तरक्की देखकर प्रेरणा लेने के बजाय, भीतर ही भीतर जलने लगते हैं। यह जलन कोई सामान्य भावना नहीं होती — यह एक मानसिक रोग बन जाती है। और दुख की बात यह है कि इस रोग की कोई दवा नहीं होती , क्योंकि यह मन से उत्पन्न होती है और वहीं पलती रहती है। ईर्ष्या: आत्मविकास का सबसे बड़ा बाधक ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने प्रयास पर ध्यान नहीं देता। वह दूसरों की उन्नति को देखकर दुखी होता है, दूसरों को गिराने की सोचता है, और धीरे-धीरे अपनी ऊर्जा , शांति और आत्मबल खो देता है। जबकि तरक्की करने वाले लोग हर आलोचना को प्रेरणा बना लेते हैं और बिना किसी से मुकाबला किए अपनी राह चलते रहते हैं। सफलता पर नहीं, संघर्ष पर गौर कीजिए जो व्यक्ति सफल हुआ है, उसकी मेहनत और संघर्ष की अनदेखी...

संस्कार, सहयोग और एकता की शक्ति: एक उज्जवल भविष्य की ओर

संस्कार, सहयोग और एकता की शक्ति: एक उज्जवल भविष्य की ओर आज का समय केवल शिक्षा अर्जित करने का नहीं, बल्कि जागरूकता, मूल्य और व्यवहार में शिक्षित बनने का है। शिक्षा का असली उद्देश्य तब पूर्ण होता है, जब वह जीवन में संस्कार, विवेक और एकता का भाव भी पैदा करे। हम सभी जानते हैं कि एक व्यक्ति का वास्तविक विकास केवल अकादमिक ज्ञान से नहीं, बल्कि उसकी सोच, संस्कार और सामाजिक उत्तरदायित्व से होता है। हमारे समाज में जितनी विविधताएँ हैं, उतनी ही ताकत और संभावनाएँ भी। हर व्यक्ति का अपना अनुभव, संस्कार और सोच होती है, परंतु यह सच्चाई है कि हम सभी का उद्देश्य एक ही है — एक उज्जवल, समृद्ध और नैतिक समाज का निर्माण। यह तभी संभव है जब हम अपने बीच की विविधताओं को समझे, एक दूसरे का सम्मान करें और एकजुट होकर अपने बच्चों का भविष्य संवारे। हमारे बच्चों की तरह, हमारा समाज भी धीरे-धीरे आकार लेता है। अगर हम चाहते हैं कि हमारा समाज प्रगति की ओर बढ़े, तो हमें पहले खुद को सजग और जागरूक बनाना होगा। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि शिक्षा केवल किताबों तक सीमित नहीं हो सकती। यह जीवन की सच्चाइयों को, संस्कारों को और रिश्...

पढ़ाई से दोस्ती: डर नहीं, आनंद

: पढ़ाई से दोस्ती: डर नहीं, आनंद  ~ आनंद किशोर मेहता कभी सोचा है, जब हम किसी खेल में मग्न होते हैं, तो समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है? लेकिन जब किताबें सामने रखी होती हैं, तो वही समय भारी क्यों लगने लगता है? इसका उत्तर है – दृष्टिकोण । पढ़ाई को अगर हम बोझ समझें, तो वह सचमुच भारी लगती है। लेकिन जब हम उससे दोस्ती कर लें, तो वह एक सुंदर यात्रा बन जाती है – ज्ञान की, समझ की और आत्म-निर्माण की। पढ़ाई क्या है? पढ़ाई केवल पाठ्यपुस्तकों को रट लेना नहीं है। यह तो एक अद्भुत खोज है – अपने अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने की, दुनिया को समझने की, और सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने की। पढ़ाई से डर क्यों लगता है? अक्सर बच्चे परीक्षा, नंबर या डाँट की चिंता में पढ़ाई से घबरा जाते हैं। उन्हें लगता है कि गलती करने पर उन्हें असफल मान लिया जाएगा। लेकिन सच तो यह है कि गलती करना सीखने का पहला कदम है । जैसे साइकिल चलाना सीखने में गिरना स्वाभाविक है, वैसे ही पढ़ाई में गलतियाँ सीखने का हिस्सा हैं। पढ़ाई से दोस्ती कैसे करें? जिज्ञासा जगाएं: हर विषय को प्रश्नों के रूप में देख...

जियो तो ऐसे जियो: जलन का उत्तर निखार से दो

जियो तो ऐसे जियो: जलन का उत्तर निखार से दो लेखक: आनंद किशोर मेहता दुनिया में हर इंसान अपनी राह पर चलता है—कोई संघर्ष करता है, कोई सफलता पाता है, तो कोई दूसरों की तरक्की से जलता है। लेकिन सोचने की बात ये है कि जब कोई आपसे जलता है, तो आप क्या करते हैं? क्या आप भी उसकी तरह जलन करने लगते हैं? या फिर अपने आपको और बेहतर बनाकर उस जलन का उत्तर निखार से देते हैं? विचार-सूत्र: "जो दूसरों की रोशनी से जलते हैं, वे कभी खुद की लौ नहीं जला पाते।" जलन: आत्मविनाश की आग जब कोई आपसे बिना वजह ईर्ष्या करता है, आपकी सफलता से जलता है, तो असल में वह खुद को ही नुकसान पहुँचा रहा होता है। उसका मन चैन से नहीं रहता, उसकी सोच रचनात्मक नहीं होती, और वह दूसरों को गिराने की होड़ में खुद नीचे गिरता चला जाता है। यह जलन धीरे-धीरे उसके आत्मबल, आत्मसम्मान और आत्मशांति को जला डालती है। आपके लिए सबसे बुद्धिमानी की बात ये है कि आप उसकी आग में जलने की बजाय, अपनी रोशनी को और तेज करें। विचार-सूत्र: "दूसरों की जलन को अपने दीपक की तेल समझो, जिससे तुम्हारी लौ और तेज़ हो सके।" सच्चा उत्त...

60 की उम्र – जीने का सही समय!

60 की उम्र – जीने का सही समय!  ~  आनंद किशोर मेहता "अब अपनी ज़िंदगी को नए रंग दो, क्योंकि असली मज़ा अब शुरू होता है!" 60 की उम्र तक हम ज़िंदगी की भाग-दौड़ में इतना उलझ जाते हैं कि जीना ही भूल जाते हैं। जिम्मेदारियों का बोझ, समाज की अपेक्षाएँ, बच्चों का भविष्य, करियर की ऊँचाइयाँ—इन सबमें उलझते-उलझते कब जवानी बीत जाती है, पता ही नहीं चलता। लेकिन क्या ज़िंदगी का सफर यहीं खत्म हो जाता है? बिल्कुल नहीं! "अब समाज की नहीं, अपने दिल की सुनो—क्योंकि असली जीवन अब शुरू होता है!" 60 की उम्र तो असल में जीवन का स्वर्णिम दौर है। यह वह समय है जब आप अपनी मर्जी से जी सकते हैं, अपने अधूरे सपनों को पूरा कर सकते हैं और ज़िंदगी को अपने अंदाज में फिर से जीने का आनंद उठा सकते हैं। 1. अब दुनिया की चिंता छोड़ो, खुद को जियो! अब तक हमने अपने परिवार, समाज और ज़िम्मेदारियों को निभाने में अपनी इच्छाओं को कहीं पीछे छोड़ दिया था। लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपने मन की सुनें! ✔ क्या आप कभी पहाड़ों पर घूमना चाहते थे? ✔ क्या आपको पेंटिंग, संगीत या नृत्य का शौक था? ✔ क्या कभी बिना किसी फ...

आस्था और परिश्रम: सफलता की कुंजी

आस्था और परिश्रम: सफलता की कुंजी  लेखक: आनंद किशोर मेहता मनुष्य के जीवन में आस्था और परिश्रम का अत्यधिक महत्व है। यह दो ऐसे स्तंभ हैं जो न केवल सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं, बल्कि असंभव को भी संभव बना देते हैं। यदि हम पौराणिक युग की ओर देखें, तो हमें कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ अटूट आस्था और कठिन परिश्रम ने चमत्कार कर दिखाए। वहीं, आधुनिक युग में भी यही सिद्धांत लागू होते हैं—जो अपने लक्ष्य पर विश्वास रखता है और निरंतर प्रयास करता है, वह निश्चित रूप से सफलता प्राप्त करता है। पौराणिक युग में आस्था और परिश्रम का महत्व यदि हम रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों को देखें, तो हमें स्पष्ट रूप से आस्था और परिश्रम के अनेक उदाहरण मिलते हैं। भगवान राम का वनवास केवल एक संघर्ष नहीं था, बल्कि उनकी आस्था और धैर्य की परीक्षा थी। उन्होंने हर कठिनाई को धैर्यपूर्वक स्वीकार किया और अंततः विजय प्राप्त की। इसी तरह, महाभारत में अर्जुन की दृढ़ता और कृष्ण पर उनकी अटूट आस्था ने उन्हें कौरवों के विरुद्ध विजयी बनाया। इन कथाओं में यह संदेश निहित है कि सच्ची आस्था और परिश्रम से असंभव भी संभव हो स...