अकेले खड़े रहना: हिम्मत की सबसे ऊँची उड़ान "जब कदम लड़खड़ाते हैं और कोई साथ नहीं होता, तब भी अगर तुम खुद को संभाल पाओ—तो वही सच्ची बहादुरी है।" कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसी राह पर ले आती है जहाँ न कोई आवाज़ होती है, न कोई परछाईं। हर दिशा एक सन्नाटे से भरी होती है, और हर मोड़ पर अकेलापन घात लगाकर बैठा होता है। ऐसे में हम सिर्फ एक साथ की तलाश करते हैं — एक कंधा, एक मुस्कान, एक आवाज़, जो कहे "मैं हूँ न।" लेकिन जब वह भी नसीब न हो, और तब भी अगर इंसान खुद को गिरने से रोक ले — तो वह कोई साधारण क्षण नहीं होता, वह एक भीतर की क्रांति होती है। यह वही क्षण है जब इंसान को समझ आता है कि उसकी सबसे बड़ी ताकत न किसी बाहरी सहारे में है, न तालियों में, न ही किसी अपनत्व में—बल्कि खुद की सोच, अपने विवेक और उस चुपचाप उठते साहस में है, जो कहता है: "डटे रहो, क्योंकि ये लड़ाई तुम्हारी सबसे असली जीत को जन्म देगी।" जब कोई नहीं होता, तब खुद का होना सीखो अकेले खड़े रहना कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ा आत्म-विकास है। यह वह किला है जिसे इंसान अपने अंदर बनाता है—चुपचाप,...
Fatherhood of God & Brotherhood of Man.