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जब अपने ही चुपचाप चक्रव्यूह रचते हैं…

जब अपने ही चुपचाप चक्रव्यूह रचते हैं… ~ आनंद किशोर मेहता अभिमन्यु का अंत भाले से नहीं, एक चुपचाप रचे गए चक्रव्यूह से हुआ था। उस चक्रव्यूह को किसी एक ने नहीं, बल्कि उन सब ने मिलकर रचा था — जो उसके अपने थे। गुरु, चाचा, कुल-परिजन — जिनके लिए वह लड़ रहा था, उन्हीं के बीच वह घिर गया। कभी-कभी जीवन भी ऐसी ही रणभूमि बन जाता है… जहाँ शत्रु नहीं, बल्कि अपनों की चुप्पी और पीठ पीछे बंधी रणनीति ही सबसे तीखा वार करती है। मेरा अपना चुप्पी से बुना चक्रव्यूह मैंने जीवन में एक ऐसा समय देखा… जहाँ मैं किसी द्वंद्व के विरुद्ध नहीं, बल्कि एक अदृश्य चक्रव्यूह के बीच खड़ा था — जो शब्दों से नहीं, मौन से बना था। आश्चर्य यह नहीं था कि कौन सामने खड़ा है, दर्द तो इस बात का था कि हर दिशा से वही चेहरे दिखे, जिन्हें मैंने अपना कहा था। कंधे जो साथ होने चाहिए थे, कहीं सहमे हुए थे — या फिर किसी और तरफ जुड़ चुके थे। 'अपराध' — बस सत्य के साथ खड़ा होना मुझसे पूछा गया बिना ही मेरे निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए गए। मैंने न किसी को दोषी ठहराया, न कोई आरोप लगाया — बस अपने अंतःकरण की आवाज़ को...