जब अपने ही चुपचाप चक्रव्यूह रचते हैं…
अभिमन्यु का अंत भाले से नहीं, एक चुपचाप रचे गए चक्रव्यूह से हुआ था।
उस चक्रव्यूह को किसी एक ने नहीं,
बल्कि उन सब ने मिलकर रचा था —
जो उसके अपने थे।
गुरु, चाचा, कुल-परिजन —
जिनके लिए वह लड़ रहा था, उन्हीं के बीच वह घिर गया।
कभी-कभी जीवन भी ऐसी ही रणभूमि बन जाता है…
जहाँ शत्रु नहीं, बल्कि अपनों की चुप्पी और पीठ पीछे बंधी रणनीति ही सबसे तीखा वार करती है।
मेरा अपना चुप्पी से बुना चक्रव्यूह
मैंने जीवन में एक ऐसा समय देखा…
जहाँ मैं किसी द्वंद्व के विरुद्ध नहीं,
बल्कि एक अदृश्य चक्रव्यूह के बीच खड़ा था —
जो शब्दों से नहीं, मौन से बना था।
आश्चर्य यह नहीं था कि कौन सामने खड़ा है,
दर्द तो इस बात का था कि
हर दिशा से वही चेहरे दिखे, जिन्हें मैंने अपना कहा था।
कंधे जो साथ होने चाहिए थे,
कहीं सहमे हुए थे —
या फिर किसी और तरफ जुड़ चुके थे।
'अपराध' — बस सत्य के साथ खड़ा होना
मुझसे पूछा गया बिना ही
मेरे निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए गए।
मैंने न किसी को दोषी ठहराया, न कोई आरोप लगाया —
बस अपने अंतःकरण की आवाज़ को सुना।
पर यही शायद सबसे बड़ा 'अपराध' था।
कभी शब्दों में, कभी मौन में —
छुपे-छुपे वार होते रहे।
लेकिन हर वार ने मेरी आत्मा को और स्पष्ट कर दिया।
अभिमन्यु की तरह… पर एक नया अंत
अभिमन्यु चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल सका —
पर मैं,
अपने आत्मबल के भरोसे
थोड़ा टूटकर, थोड़ा संभलकर
उस चक्रव्यूह से बाहर आ गया।
बाहर आने का अर्थ केवल शारीरिक मुक्ति नहीं,
बल्कि अपनी चेतना को मलिन होने से बचाना था।
अपने भीतर के प्रकाश को बुझने से रोकना था।
वेदना क्या सिखा गई…
इस सबने मुझे सिखाया —
कि सभी अपने नहीं होते,
और जो अपने होते हैं, वे हर बार साथ नहीं होते।
और यह भी कि —
जो युद्ध मौन में लड़ा जाता है,
वह तलवार से जीते गए युद्धों से कहीं ऊँचा होता है।
अगर तुम अपने सत्य के साथ खड़े हो,
तो भले अकेले हो,
पर तुम कभी पराजित नहीं हो सकते।
आज जब पीछे देखता हूँ…
तो वो पल आज भी आँखें नम कर देते हैं।
पर अब वे आंसू कमजोरी के नहीं,
धैर्य और आत्मबल की चमक लिए होते हैं।
मैंने जाना —
कि भीतर का बल ही असली शौर्य है।
और
जो व्यक्ति अकेले भी सत्य के साथ खड़ा होता है,
उसके साथ अंततः स्वयं मालिक खड़े हो जाते हैं।
उसी मौन क्षण में, मैंने स्वयं को पाया।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
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