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Showing posts with the label अकेलापन

बस किसी ने नहीं सुनी मेरी अंतरात्मा

बस किसी ने नहीं सुनी मेरी अंतरात्मा… कभी-कभी लगता है जैसे मैं एक ऐसे कमरे में हूँ जहाँ सब कुछ है—दीवारें, छत, खिड़की, दरवाज़ा भी… पर फिर भी कोई दस्तक नहीं देता। हर ओर चुप्पी है—भीतर भी, बाहर भी। मैंने कोशिश की कि कोई मेरी आँखों में झाँके… पर लोग सिर्फ चेहरों को पढ़ते हैं, अंतरात्मा की चुप्पी को नहीं। मैंने मुस्कराहट ओढ़ ली, ताकि कोई पूछे—"सब ठीक है न?" पर सबने मान लिया कि मैं सच में ठीक हूँ। सच कहूँ? मैं थक गया हूँ। हर बार खुद को समझाने से… हर बार सबके सामने मज़बूत दिखने की कोशिश से… हर बार खुद के आँसू खुद ही पोंछने से… कभी लगता है—क्या कोई है जो मेरे भीतर की आवाज़ को सुन सके? कोई, जो मुझे बिना बोले समझ सके? शब्द अब कम पड़ते हैं , लेकिन आंसू कभी नहीं थकते। भीड़ है, रिश्ते हैं, आवाजें हैं… पर कोई “मेरा” नहीं लगता। फिर भी मैं जी रहा हूँ… क्यों? क्योंकि कहीं न कहीं, दिल के किसी कोने में एक उम्मीद अभी बाकी है… शायद कोई एक दिन आएगा— जो चुप रहेगा, पर सब समझ जाएगा… जो सलाह नहीं देगा, बस पास बैठ जाएगा… जो मेरी अंतरात्मा की थकान , मेरी चुप्पी को पढ...

अकेले खड़े रहना: हिम्मत की सबसे ऊँची उड़ान

अकेले खड़े रहना: हिम्मत की सबसे ऊँची उड़ान "जब कदम लड़खड़ाते हैं और कोई साथ नहीं होता, तब भी अगर तुम खुद को संभाल पाओ—तो वही सच्ची बहादुरी है।" कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसी राह पर ले आती है जहाँ न कोई आवाज़ होती है, न कोई परछाईं। हर दिशा एक सन्नाटे से भरी होती है, और हर मोड़ पर अकेलापन घात लगाकर बैठा होता है। ऐसे में हम सिर्फ एक साथ की तलाश करते हैं — एक कंधा, एक मुस्कान, एक आवाज़, जो कहे "मैं हूँ न।" लेकिन जब वह भी नसीब न हो, और तब भी अगर इंसान खुद को गिरने से रोक ले — तो वह कोई साधारण क्षण नहीं होता, वह एक भीतर की क्रांति होती है। यह वही क्षण है जब इंसान को समझ आता है कि उसकी सबसे बड़ी ताकत न किसी बाहरी सहारे में है, न तालियों में, न ही किसी अपनत्व में—बल्कि खुद की सोच, अपने विवेक और उस चुपचाप उठते साहस में है, जो कहता है: "डटे रहो, क्योंकि ये लड़ाई तुम्हारी सबसे असली जीत को जन्म देगी।" जब कोई नहीं होता, तब खुद का होना सीखो अकेले खड़े रहना कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ा आत्म-विकास है। यह वह किला है जिसे इंसान अपने अंदर बनाता है—चुपचाप,...