माता-पिता: जायदाद नहीं, ज़िम्मेदारी हैं। ~ आनंद किशोर मेहता इस भौतिकतावादी युग में हमने रिश्तों को भी तौलना सीख लिया है — संपत्ति के तराजू में। माँ-बाप अब ‘विरासत’ का हिस्सा बनते जा रहे हैं, ‘संस्कार’ का नहीं। हमने देखा है — बड़े-बड़े परिवार अदालतों में खड़े हैं, केवल इसलिए कि उन्हें कुछ ज़मीन या पैसा और मिल जाए। पर वही लोग जब माँ-बाप को अस्पताल ले जाने की बारी आती है, तो एक-दूसरे की ओर देखने लगते हैं। यह विडंबना नहीं, समाज की आत्मिक दरिद्रता का प्रतीक है। जायदाद के लिए लड़ाई क्यों? क्योंकि हमें मिलना है। क्योंकि हमें रखना है। क्योंकि हमें बढ़ाना है। पर माँ-बाप की सेवा के लिए कौन लड़ता है? यहाँ किसी को कुछ मिलता नहीं — यहाँ तो केवल दिया जाता है। समय, ध्यान, धैर्य, प्रेम, त्याग और करुणा। और शायद इसी कारण... आज की दुनिया में ये गुण दुर्लभ हो गए हैं। माँ-बाप की जिम्मेदारी कोई भार नहीं जिम्मेदारी बोझ तब बनती है, जब हम उसे "मजबूरी" समझते हैं। पर जिसने माँ-बाप के आँचल की छाया में निस्वार्थ प्रेम को महसूस किया है, जिसने बापू के काँपते हाथों से भी...
Fatherhood of God & Brotherhood of Man.