मैंने जिसे अपना दोस्त समझा, वही मेरी तकलीफ का किस्सा बना गया लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता एक आत्मगाथा, एक चेतावनी, एक सीख... कुछ रिश्ते चेहरे पर मुस्कान लाते हैं, और कुछ मुस्कानें उम्रभर की चुप्पी दे जाती हैं। यह सिर्फ कहानी नहीं है------ यह उन सभी के लिए है, जो अपनों की परछाई में खुद को खो चुके हैं। मेरा भी एक ऐसा ही रिश्ता था, जो ऊपर से तो दोस्ती का ताज पहनाए बैठा था, पर भीतर ही भीतर वह आग बन चुका था, जो मेरी पहचान को चुपचाप जलाता रहा। मैंने उसे अपना कहा। अपने आँसू, अपने हालात, और अपने टूटे सपनों तक उसे सौंप दिए। सोचा, ये शख़्स शायद मेरी तकलीफ़ों में मेरी ढाल बनेगा। पर वो तो उन्हीं तकलीफ़ों से मेरा नक्शा बना रहा था— कैसे, कब, और कहाँ मुझे गिराया जाए। कविता: "मैंने जिसे अपना समझा" मैंने जिसे अपना समझा, वो गैरों से भी बदतर निकला, साथ बैठा, मुस्कराया, और भीतर ही भीतर शिकारी निकला। मैंने अपना हाल बताया, आँसुओं में भी उसे दोस्त माना, पर वो तो उन आँसुओं से अपने इरादों का नक्शा बनाता रहा। मैंने हर रात उसे पुकारा, अपने दर्द का भगवान...
Fatherhood of God & Brotherhood of Man.