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चुप रह जाना या सजग हो जाना: मौन की शक्ति में छिपी पहचान

शीर्षक: चुप रह जाना या सजग हो जाना: मौन की शक्ति में छिपी पहचान लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता कभी-कभी हम किसी बातचीत में बस समझाने की कोशिश कर रहे होते हैं, लेकिन सामने वाला मानो बहस करने या अपनी बात थोपने के मूड में होता है। और फिर, बात बढ़ती है… हम उलझ जाते हैं। उसी क्षण हमारे भीतर कुछ टूटता है— क्या मैं ही गलत था? क्या मुझमें ही कमी है? और तब अचानक हम चुप हो जाते हैं। ऐसे मौन का अनुभव लगभग हर संवेदनशील व्यक्ति ने किया है। लेकिन प्रश्न ये है कि यह चुप्पी डर से है या समझदारी से? चुप रहना हमेशा कमजोरी नहीं है अगर चुप रहना केवल इसलिए है कि हम डर गए, या खुद को ही दोषी मान बैठे, तो यह चुप्पी धीरे-धीरे हमारी आत्मा को थका देती है। लेकिन अगर चुप रहना इसलिए है कि हम समझते हैं कि इस समय शब्दों से नहीं, शांति से जवाब देना ज़रूरी है—तो यही मौन हमारी सबसे बड़ी ताकत बन जाता है। "हर बात का जवाब देना ज़रूरी नहीं होता। कभी-कभी मौन ही सबसे सुंदर उत्तर होता है।" हर जगह टकराव क्यों? आजकल संवाद की जगह बहस ने ले ली है। बात कहने की जगह बात थोपने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। लोग अपनी बात सही...