शीर्षक: चुप रह जाना या सजग हो जाना: मौन की शक्ति में छिपी पहचान
कभी-कभी हम किसी बातचीत में बस समझाने की कोशिश कर रहे होते हैं, लेकिन सामने वाला मानो बहस करने या अपनी बात थोपने के मूड में होता है। और फिर, बात बढ़ती है… हम उलझ जाते हैं।
उसी क्षण हमारे भीतर कुछ टूटता है—क्या मैं ही गलत था? क्या मुझमें ही कमी है?
और तब अचानक हम चुप हो जाते हैं।
ऐसे मौन का अनुभव लगभग हर संवेदनशील व्यक्ति ने किया है। लेकिन प्रश्न ये है कि यह चुप्पी डर से है या समझदारी से?
चुप रहना हमेशा कमजोरी नहीं है
अगर चुप रहना केवल इसलिए है कि हम डर गए, या खुद को ही दोषी मान बैठे, तो यह चुप्पी धीरे-धीरे हमारी आत्मा को थका देती है।
लेकिन अगर चुप रहना इसलिए है कि हम समझते हैं कि इस समय शब्दों से नहीं, शांति से जवाब देना ज़रूरी है—तो यही मौन हमारी सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।
"हर बात का जवाब देना ज़रूरी नहीं होता। कभी-कभी मौन ही सबसे सुंदर उत्तर होता है।"
हर जगह टकराव क्यों?
आजकल संवाद की जगह बहस ने ले ली है। बात कहने की जगह बात थोपने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। लोग अपनी बात सही सिद्ध करने में इतने व्यस्त हो गए हैं कि किसी और की भावना, अनुभव या दृष्टिकोण के लिए कोई जगह ही नहीं बची।
"समझने की कोशिश की जाए, तो बहस की जरूरत ही नहीं पड़ती।"
सजग रहना, चुप रहना नहीं है
सीमा में रहना पलायन नहीं, सजग जीवन की पहचान है।
मतलब यह नहीं कि आप दुनिया से कट जाएँ।
मतलब यह है कि आप यह जान लें: कहाँ बोलना है, कब चुप रहना है, और क्या कहने का सही समय है।
"बुद्धिमानी यह नहीं कि आप हर जगह बोलें—बुद्धिमानी यह है कि आप वहाँ बोलें, जहाँ आपके शब्द कुछ अच्छा पैदा करें।"
जीवन में ठहराव की जगह हो
अगर हम हर बार टकराव से बचते हुए, सजगता से उत्तर देना सीख जाएँ, तो हमारे जीवन में एक शांत ठहराव आ जाता है।
और वही ठहराव हमारी सोच, रिश्तों और निर्णयों को स्थिरता देता है।
आप जब चुप होते हैं, तो केवल बाहर नहीं, भीतर भी सुनने लगते हैं—खुद को, अपने अनुभव को, अपनी सच्चाई को।
निष्कर्ष:
आज से अगर हम ये ठान लें कि—
- हर बहस का हिस्सा नहीं बनेंगे,
- चुप रहेंगे, लेकिन सजग होकर,
- और अपनी सीमाओं को सम्मान के साथ अपनाएंगे,
तो हमारा मौन भी बोलेगा… और लोग उस मौन में भी एक सच्चाई को महसूस करेंगे।
"सच को चीखने की ज़रूरत नहीं होती। वह मौन में भी चमकता है।"
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