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वो अनकहा जो रिश्तों को तोड़ देता है

वो अनकहा जो रिश्तों को तोड़ देता है  ~ आनंद किशोर मेहता रिश्ते कभी एक दिन में नहीं टूटते। ना ही कोई बड़ी घटना इसकी वजह होती है। यह तो छोटे-छोटे अनदेखे क्षणों की वो दरारें हैं, जब किसी ने सुना नहीं, किसी ने समझा नहीं, और किसी ने चाहकर भी कुछ कहा नहीं। हर बार जब हम अपनी भावनाएँ दबा जाते हैं, हर बार जब हम सामने वाले को 'समझ जाएगा' मान लेते हैं — हम अनजाने में एक ईंट खींच लेते हैं उस नींव से, जिस पर कभी विश्वास की दीवार खड़ी थी। हम सोचते हैं, "अभी नहीं तो बाद में कह दूँगा", पर वो 'बाद' कभी आता नहीं। और एक दिन, हम पाते हैं कि वो रिश्ता सिर्फ यादों में रह गया है — उससे जुड़ा इंसान अब हमारे पास नहीं। या अगर है भी... तो वैसा नहीं रहा, जैसा कभी हुआ करता था। ऐसे में हमें खुद से पूछना होगा — क्या हम सच में आगे बढ़े हैं? या दूसरों को पीछे छोड़ते हुए खुद को खो बैठे हैं? जीवन में सम्मान चाहिए, पर उस कीमत पर नहीं कि किसी को छोटा करके खुद बड़े दिखें। हमें हँसना है, मगर किसी की चुप्पी की कीमत पर नहीं। हमें उड़ना है, मगर किसी के सपनों को रौंदकर नहीं। रिश्ते सँजोने ...

सोचने लायक बना दिया है…

  सोचने लायक बना दिया है…  ~ आनंद किशोर मेहता जब लोग मेरी कमियाँ गिनाने में व्यस्त होते हैं, तब मैं मुस्कुरा कर यह समझ जाता हूँ — मैंने उन्हें सोचने लायक कुछ तो दिया है। किसी को चुभी है मेरी बात, किसी को खटक गया मेरा बदलाव, और किसी को झुकना पड़ा अपने अहम के सामने। क्योंकि, जो कुछ भी हमें भीतर से हिला दे — वो साधारण नहीं होता। रिश्ते कभी कुदरती मौत नहीं मरते। इन्हें मारता है इंसान खुद — नफरत से, नजरअंदाज़ से, और कभी-कभी, सिर्फ एक गलतफहमी से। कभी-कभी सोचता हूँ — मुझे क्या हक है कि किसी को मतलबी कहूं? मैं खुद रब को सिर्फ मुसीबत में याद करता हूँ! तो फिर दूसरों के स्वार्थ पर क्यों उंगली उठाऊँ? हम जब किसी की सफलता को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वह हमारे भीतर ईर्ष्या बनकर जलती है। और जब उसे अपनाकर देखें — तो वही सफलता प्रेरणा बन जाती है। मैं अक्सर जिनके झूठ का मान रख लेता हूँ, वो सोचते हैं, उन्होंने मुझे बेवकूफ़ बना दिया। पर उन्हें यह कौन समझाए — मैंने रिश्ते की मर्यादा बचाई, ना कि अपनी मूर्खता दिखाई। कोई दवा नहीं है उन रोगों की, जो तरक्की देखकर जलने लगते ह...

माता-पिता: जायदाद नहीं, ज़िम्मेदारी हैं।

  माता-पिता: जायदाद नहीं, ज़िम्मेदारी हैं।  ~ आनंद किशोर मेहता इस भौतिकतावादी युग में हमने रिश्तों को भी तौलना सीख लिया है — संपत्ति के तराजू में। माँ-बाप अब ‘विरासत’ का हिस्सा बनते जा रहे हैं, ‘संस्कार’ का नहीं। हमने देखा है — बड़े-बड़े परिवार अदालतों में खड़े हैं, केवल इसलिए कि उन्हें कुछ ज़मीन या पैसा और मिल जाए। पर वही लोग जब माँ-बाप को अस्पताल ले जाने की बारी आती है, तो एक-दूसरे की ओर देखने लगते हैं। यह विडंबना नहीं, समाज की आत्मिक दरिद्रता का प्रतीक है। जायदाद के लिए लड़ाई क्यों? क्योंकि हमें मिलना है। क्योंकि हमें रखना है। क्योंकि हमें बढ़ाना है। पर माँ-बाप की सेवा के लिए कौन लड़ता है? यहाँ किसी को कुछ मिलता नहीं — यहाँ तो केवल दिया जाता है। समय, ध्यान, धैर्य, प्रेम, त्याग और करुणा। और शायद इसी कारण... आज की दुनिया में ये गुण दुर्लभ हो गए हैं। माँ-बाप की जिम्मेदारी कोई भार नहीं जिम्मेदारी बोझ तब बनती है, जब हम उसे "मजबूरी" समझते हैं। पर जिसने माँ-बाप के आँचल की छाया में निस्वार्थ प्रेम को महसूस किया है, जिसने बापू के काँपते हाथों से भी...

जिससे उम्मीद थी समझने की, उसने मुझे सुधारने की ठान ली

जिससे उम्मीद थी समझने की, उसने मुझे सुधारने की ठान ली ~ आनंद किशोर मेहता कभी-कभी जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति आता है जिससे हम न सिर्फ अपने मन की बात कहते हैं, बल्कि दिल की परतें भी खोल देते हैं। हमें लगता है कि यही तो वो है जो हमें बिना कहे समझ लेगा। जिसकी आंखों में हमारे भीतर की हलचल पढ़ने की क्षमता होगी। जिसे हम अपने टूटे टुकड़ों के साथ स्वीकार कर पाएंगे। और वह हमें वैसे ही अपना लेगा। पर जब वही व्यक्ति, जिसे हमने समझने वाला चुना, हमें 'सुधारने' लगे—तो वह सबसे बड़ी चुभन होती है। "जो हमें समझते हैं, वे हमें कभी भी सुधारने की कोशिश नहीं करते।" मैंने शब्द नहीं मांगे थे, बस थोड़ा सा समझना चाहा था। लेकिन उसने मेरे भावों को 'कमज़ोरी' समझ लिया। "हमारी कमजोरी हमारी सबसे बड़ी ताकत बन सकती है, यदि उसे बिना किसी डर के अपनाया जाए।" कभी-कभी इंसान बस चाहता है कि कोई उसे सुने, उसके दर्द को महसूस करे, बिना कोई नसीहत दिए। वह बस चाहता है कि कोई उसके साथ बैठे और कहे—"हाँ, मैं समझता हूँ तुम्हें, जैसा तुम हो वैसा ही।" पर जब वह व्यक्ति आपको सुधारने की नी...