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भाग चौथा--- शब्दों से परे: भावनात्मक स्वतंत्रता की शांत यात्रा --

भाग चौथा---  1. शब्दों से परे: भावनात्मक स्वतंत्रता की शांत यात्रा  -- ~ आनंद किशोर मेहता भूमिका: हमारे भीतर की भावनाएँ हमेशा हमारे साथ रहती हैं — कभी प्रेम, कभी शोक, कभी प्रसन्नता, कभी तनाव। ये भावनाएँ हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं को आकार देती हैं और हमें प्रेरित करती हैं। सामान्य रूप से, हम इन भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करने की आवश्यकता महसूस करते हैं, क्योंकि हमें लगता है कि यह हमारी मदद करेगा या हमें दूसरों से समझ मिल जाएगी। परंतु, क्या हर भावना को बाहर लाना ज़रूरी है? क्या हमें हर स्थिति में अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहिए? इस लेख में हम उस अदृश्य यात्रा की चर्चा करेंगे, जहाँ व्यक्ति अपनी भावनाओं को न तो शब्दों में बांधता है, न साझा करता है, फिर भी वह पूरी तरह से संतुलित और शांति से भरा होता है। यह ऐसी यात्रा है, जहाँ व्यक्ति मौन में अपने अस्तित्व को समझता है और अपनी आंतरिक शांति को बनाए रखता है। यह भावनाओं की परिपक्वता का प्रतीक है, जहाँ हमें बाहरी पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती, और भीतर का स्वर हमें हमारे अस्तित्व की गहरी समझ देता है। यह लेख उन लोगों के लिए है जो अपन...

एक मासूम की चुप्पी और भविष्य की पुकार

एक मासूम की चुप्पी और भविष्य की पुकार ~ आनंद किशोर मेहता 1. चुप्पी में छिपी पुकार कभी-कभी कुछ घटनाएँ दिल को भीतर तक झकझोर देती हैं। ऐसा ही अनुभव हाल ही में मेरे साथ हुआ, जब एक मासूम बच्चा—जो प्यारा, सरल और निश्छल था—मेरे स्कूल में पढ़ता था। उसके माता-पिता अत्यंत व्यस्त जीवन जीते हैं। पिता देर रात तक शराब और मौज-मस्ती में डूबे रहते, माँ खेत और रसोई के कामों में दिन-रात लगी रहती। ऐसे माहौल में वह बच्चा पढ़ाई में कमजोर था, लेकिन उसका दिल कोमल और भावनाएँ गहरी थीं। 2. आत्मिक परिवर्तन की शुरुआत (Inner Transformation) नर्सरी से कक्षा एक तक उसका प्रदर्शन साधारण रहा, लेकिन कक्षा दो में आते-आते उसमें एक चमत्कारी परिवर्तन दिखा। वह पढ़ाई (Study) के प्रति उत्साहित हो गया। उसकी समझ (Understanding) बढ़ने लगी, आत्मविश्वास (Self-confidence) झलकने लगा। "यह देखकर मुझे गहरा संतोष हुआ—मानो वर्षों से बोया गया एक बीज अब अंकुरित होकर सूरज की ओर मुस्कुरा रहा हो।” 3. निर्णय का मोड़ (The Turning Point) लेकिन तभी एक मोड़ आया—उसके पिता के हाथ कुछ पैसे आए, उन्होंने बड़ा बेटा को किसी ‘हॉस्टल’ (Host...

भावनाओं की गहराई और संस्कारों की भूमिका

भावनाओं की गहराई और संस्कारों की भूमिका लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता जियो तो ऐसे जियो: अनुभव, सेवा और संवेदनाओं से संवरता जीवन बचपन की एक मासूम चाह हर बच्चा चाहता है कि उसके माता-पिता, उसका परिवार और समाज उसे "अच्छा" कहें। उसे प्यार करें, उसकी तारीफ़ करें और सम्मान दें। यह केवल एक चाह नहीं, बल्कि उसकी पहचान और आत्मविश्वास का आधार बनती है। अच्छे संस्कार, हर हाल में साथ निभाते हैं—बचपन से बुढ़ापे तक। बचपन से मन में यह भाव बैठ जाता है कि "मैं अच्छा हूँ तभी मुझे प्यार मिलेगा।" यही सोच उसके कर्मों का मार्गदर्शन करती है। जब सराहना नहीं मिलती लेकिन जब कोई बच्चा या युवा नेक कर्म करता है, फिर भी अगर उसे सराहना नहीं मिलती, तो उसके भीतर धीरे-धीरे पीड़ा भरने लगती है। वह सोचता है—"शायद मैं अच्छा नहीं हूँ!" यह भाव आत्म-संशय को जन्म देता है। प्रेम की भूख जब पूरी नहीं होती, तब इंसान धीरे-धीरे भीतर से टूटने लगता है।    ऐसी अवस्था में वह अपनों को ही दोषी मानने लगता है। उसका व्यवहार कठोर होने लगता है, और वह भीतर ही भीतर तन्हा हो जाता है। रिश्तों में दरार और दूरी धी...