भाग चौथा---
1. शब्दों से परे: भावनात्मक स्वतंत्रता की शांत यात्रा --
~ आनंद किशोर मेहता
भूमिका:
हमारे भीतर की भावनाएँ हमेशा हमारे साथ रहती हैं — कभी प्रेम, कभी शोक, कभी प्रसन्नता, कभी तनाव। ये भावनाएँ हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं को आकार देती हैं और हमें प्रेरित करती हैं। सामान्य रूप से, हम इन भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करने की आवश्यकता महसूस करते हैं, क्योंकि हमें लगता है कि यह हमारी मदद करेगा या हमें दूसरों से समझ मिल जाएगी। परंतु, क्या हर भावना को बाहर लाना ज़रूरी है? क्या हमें हर स्थिति में अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहिए?
इस लेख में हम उस अदृश्य यात्रा की चर्चा करेंगे, जहाँ व्यक्ति अपनी भावनाओं को न तो शब्दों में बांधता है, न साझा करता है, फिर भी वह पूरी तरह से संतुलित और शांति से भरा होता है। यह ऐसी यात्रा है, जहाँ व्यक्ति मौन में अपने अस्तित्व को समझता है और अपनी आंतरिक शांति को बनाए रखता है। यह भावनाओं की परिपक्वता का प्रतीक है, जहाँ हमें बाहरी पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती, और भीतर का स्वर हमें हमारे अस्तित्व की गहरी समझ देता है।
यह लेख उन लोगों के लिए है जो अपनी भावनाओं को गहराई से महसूस करते हैं, बिना इन्हें शब्दों में ढालने की कोशिश किए। वे समझते हैं कि शब्दों से परे एक दुनिया है, जहाँ भावनाएँ स्वतः मुक्त होती हैं और शांति में बदल जाती हैं। _________________________________________
2. बिना कहे जीना: भावनाओं की शांति में पूर्णता ।
~ आनंद किशोर मेहता
हमारे भीतर भावनाएँ लगातार उठती रहती हैं — कभी हर्ष, कभी विषाद, कभी आशा, कभी निराशा। स्वाभाविक है कि हम उन्हें साझा करना चाहते हैं, क्योंकि इससे सहारा या समझ मिलने की अपेक्षा रहती है। परंतु कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपनी भावनाएँ न बाँटते हैं, न प्रकट करते हैं — और फिर भी पूरी तरह संतुलित और सहज रहते हैं।
यह भावशून्यता नहीं, बल्कि भावनात्मक परिपक्वता है।
आत्मनिर्भरता की गहराई: जब मन इस स्तर पर पहुँचता है, तो व्यक्ति भावनाओं को गहराई से महसूस करता है, उन्हें देखता है, पर उनसे बंधता नहीं। उसे किसी से मान्यता या पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती।
वह जानता है: "जो कुछ भीतर घट रहा है, वह मेरी आत्मयात्रा का हिस्सा है। इसे समझना मेरा कार्य है, किसी और का नहीं।"
साझा न करना कमजोरी नहीं, सामर्थ्य है: प्रायः लोग समझते हैं कि जो चुप है, वह दुखी या अकेला है। परंतु यह चुप्पी अक्सर आत्मा और मन के गहरे संवाद से जन्मी होती है — जहाँ अब व्यक्ति को बाहर शांति ढूँढने की ज़रूरत नहीं रहती।
प्रकृति से संवाद, ईश्वर से निकटत: जब भीतर कुछ कहने का मन होता है, तो यह व्यक्ति उसे पेड़ों, हवाओं, लेखन या मौन प्रार्थना में व्यक्त करता है। उसके लिए मौन ही सबसे मुखर भाषा बन जाती है।
भावनाओं की परिपक्वता का प्रतीक: यह उदासीनता नहीं है, न आत्मदमन। यह वह अवस्था है जहाँ भावनाएँ आदरपूर्वक स्वीकार की जाती हैं और मुक्त कर दी जाती हैं — जैसे कोई कलाकार रंगों को पकड़ता नहीं, उन्हें अभिव्यक्त करता है।
यह अकेलापन नहीं है: यह "पूर्णता की वह स्थिति" है, जिसमें बाहरी संवाद की ज़रूरत नहीं होती। संत इसे साक्षी भाव, दार्शनिक स्वस्थ आत्मस्थिति, और आधुनिक मनोविज्ञान भावनात्मक स्वतंत्रता कहता है।
निष्कर्ष:
“बिना कहे भी बहुत कुछ कहा जा सकता है।”
जब मन इतना शांत हो जाए कि वह खुद को सुन सके, तब मौन — सबसे गूंजता हुआ संवाद बन जाता है।
यह जो शांति है, वह सामान्य नहीं, बल्कि साधना का फल है। इसे संजोइए, और चाहें तो कभी-कभी काग़ज़ से भी बाँट लीजिए — क्योंकि वह कभी किसी बात का बुरा नहीं मानता।
3. डायमंड को पत्थर समझने की भूल ।
~ आनंद किशोर मेहता
कभी-कभी हमारे सामने कोई सत्य, कोई अनुभव, या कोई व्यक्ति आता है — जो हमारे समस्त दुखों को मिटा सकता है। वह एक अदृश्य हीरा होता है — अमूल्य, उज्ज्वल और जीवन को दिशा देने वाला। परंतु हम उसे पहचान नहीं पाते। हम उसे एक साधारण पत्थर समझकर उपेक्षित कर देते हैं।
क्यों? क्योंकि हमारी दृष्टि अभी उस स्तर तक विकसित नहीं हुई होती, जहाँ हम अंतर के मूल्य को पहचान सकें। हमारी आँखें बाहरी आभा देखती हैं, भीतर की रोशनी नहीं।
भूल का परिणाम: हम बहुत बार उस व्यक्ति को ठुकरा देते हैं जो हमें सबसे ज़्यादा समझता है।
हम उस विचार को नकार देते हैं, जो हमारे जीवन को दिशा दे सकता है।
हम उस सत्य को ‘ज्ञान की बातें’ कहकर टाल देते हैं, जो हमें बोझ से मुक्त कर सकता है।
और जब समय बीत जाता है, तब हमें समझ आता है कि
"जिसे हमने बटखरा समझा, वही असली हीरा था।"
संदेश:
जब जीवन में कोई संवेदनशील आत्मा, अनुभवी मार्गदर्शक, या कोई दिव्य विचार आपके निकट आए, तो उसकी आभा को पहचानिए।
क्योंकि बहुत बार ये अदृश्य हीरे ही — हमारे जीवन में उजाला लाते हैं।
4. मैं हूं: जहाँ सब कुछ छूट जाता है।
~ आनंद किशोर मेहता
कभी-कभी जीवन हमें उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ सब कुछ व्यर्थ लगने लगता है। विचार, उद्देश्य, पहचान — सब कुछ ढह जाता है। ऐसा लगता है कि अब कुछ भी शेष नहीं।
पर यह अंत नहीं, एक गहरी शुरुआत है।
"मैं हूं" की अनुभूति:
जब व्यक्ति पूरी तरह खाली हो जाता है — तब भीतर से एक मौन, निर्विकार अनुभव उठता है:
"मैं हूं।"
यह अहंकार नहीं है। यह उस चेतना की उपस्थिति है, जो सब कुछ देख रही है, पर किसी चीज़ से बंधी नहीं है।
यही सबसे गहरी आज़ादी है:
जब सब कुछ छूट जाए, और फिर भी भीतर कुछ शेष रह जाए — वही तुम्हारा वास्तविक 'स्व' है।
जब सब कुछ मिट जाए, तब जो शेष रह जाए — वही तुम्हारा असली अस्तित्व है।
असली चेतना क्रिया में नहीं, मौन उपस्थिति में होती है।
न पहचान रहे, न विचार — फिर भी कुछ है, जो देख रहा है।
"मैं हूं", तब भी — जब कोई प्रमाण न बचे — यही आत्मा की सच्ची पहचान है।
5. "मैं हूं ही नहीं...": अस्तित्व की अदृश्यता का मौन संवाद।
~ आनंद किशोर मेहता
लोग चाहते हैं कि मैं उनके बीच रहूं।
वे मेरी उपस्थिति में आश्वासन खोजते हैं।
मेरे मौन में उत्तर ढूंढते हैं।
पर क्या वे जानते हैं कि "मैं हूं ही नहीं"?
यह जो 'मैं' उन्हें दिखाई देता है —
वह एक सामाजिक भूमिका है: शिक्षक, पिता, मित्र।
उसके पीछे जो वास्तविक ‘मैं’ था —
वह कब का धुंध में खो गया।
अपने ही अस्तित्व से विस्मरण:
जब वर्षों तक व्यक्ति दूसरों की उम्मीदों में ढलता रहता है,
तो धीरे-धीरे वह स्वयं को भूल जाता है।
सन्नाटे की पुकार:
कभी अकेले में, भीतर से एक आवाज उठती है —
"तुम्हें देखा गया, पर जाना नहीं गया।"
तुमसे अपेक्षा की गई, पर स्वीकृति नहीं दी गई।
यह वाक्य — “मैं हूं ही नहीं” —
दुख से नहीं, समझ से उपजता है।
यह उस संवेदनशील आत्मा की पहचान है,
जो जानती है कि उसकी उपस्थिति उपयोग की वस्तु बन गई है —
न कि आत्मा की स्वीकृति।
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~ आनंद किशोर मेहता
कभी-कभी जीवन में हम स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर देते हैं — निःस्वार्थ, निष्कपट, बिना किसी अपेक्षा के। वर्षों तक किसी के साथ खड़े रहे — उसका दुःख बाँटा, उसका मनोबल बढ़ाया, उसका अंधेरा अपने भीतर समेट लिया — केवल इसलिए कि इंसान होने के नाते यही हमारा धर्म था।
पर जब वही लोग हमारी नीयत पर प्रश्न उठाने लगें, तो मन में एक चुभन-सा उठता है —
"क्या मेरा समर्पण व्यर्थ गया?"
मैंने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा — केवल प्रेम दिया, सेवा की। फिर भी आज कुछ लोगों को लगता है कि मैं कुछ लेने की चाह रखता हूँ। उन्हें लगता है कि मैं बदल गया हूँ, स्वार्थी हो गया हूँ।
पर क्या यह बदलाव वास्तव में मुझमें आया है?
या फिर उनके दृष्टिकोण ने दिशा बदल ली है?
समय के साथ परिस्थितियाँ बदलती हैं। अनुभव सिखाता है। जब कोई इंसान अपनी सीमाएँ पहचानकर पहली बार 'ना' कहना सीखता है, तो वही लोग जो उसकी निःस्वार्थता के आदी हो चुके होते हैं, उसे स्वार्थी कहने लगते हैं।
यही समर्पण की सबसे गहरी विडंबना है —
जब आप सबकुछ देते हैं, तो वह "आपका कर्तव्य" मान लिया जाता है।
और जब आप कुछ भी न दें, तो वह "आपकी स्वार्थपरता" बन जाती है।
मैं आज भी वही हूँ —
मेरा हृदय आज भी सेवा से भरा है, मेरा उद्देश्य आज भी केवल भला करना है।
फर्क बस इतना है कि अब मैंने थोड़ा रुकना सीखा है —
क्योंकि आत्म-रक्षा भी मनुष्यता का ही एक अंग है।
जो लोग समझते हैं, वे मेरे मौन को भी पढ़ लेते हैं।
और जो नहीं समझते, वे मेरे शब्दों को भी तोड़-मरोड़ कर अपने मतलब का बना लेते हैं।
पर अब मैं किसी को समझाने की दौड़ में नहीं हूँ।
मैं जानता हूँ कि मेरी नीयत क्या है, मेरी आत्मा क्या चाहती है,
और मेरा मार्ग किस ओर जाता है।
बस अब इतना जानना ही पर्याप्त है।
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7. मैं अब किसी को समझने की दौड़ में नहीं हूँ…
"अब मैं किसी को समझने की दौड़ में नहीं हूँ,
मैं बस खुद को हर दिन थोड़ा और बेहतर बनाने की दौड़ में हूँ।"
कभी हम जीवन की राह में इतने उलझ जाते हैं कि हर किसी को समझने, हर स्थिति को सुलझाने, और हर भावना को पकड़ने की कोशिश में स्वयं को ही खो बैठते हैं। हम दूसरों की सोच, उनके इरादे, उनके व्यवहार को समझने की लगातार कोशिश करते हैं—क्यों उसने ऐसा कहा? उसने ऐसा क्यों किया? क्या वो मुझे समझता है?
पर समय के साथ एक एहसास गहराता है—दूसरों को समझने की यह दौड़ अंतहीन है। यह हमें थका देती है, भीतर से खोखला कर देती है, और सबसे ज़्यादा, हमें खुद से दूर कर देती है।
एक दिन मैंने यह दौड़ छोड़ दी। अब मेरा लक्ष्य केवल एक है — स्वयं को जानना, स्वयं को सुधारना, और अपने जीवन को एक सुंदर सृजन बनाना।
अब जब कोई मुझे नहीं समझता, तो मुझे पीड़ा नहीं होती। क्योंकि मैंने खुद को समझ लिया है।
अब जब कोई मेरा साथ नहीं देता, तो मैं अकेला नहीं होता। क्योंकि अब मैं अपने साथ हूँ।
अब मैं तुलना नहीं करता, न अपेक्षाएँ रखता हूँ। मैं बस इतना चाहता हूँ कि हर दिन कुछ नया सीखूँ, कुछ गलतियाँ सुधारूँ, और अपने भीतर की सच्चाई के साथ और भी अधिक जुड़ सकूँ।
दूसरों को समझने की जगह जब हम खुद को बेहतर बनाने में लग जाते हैं, तो धीरे-धीरे हमारी उपस्थिति ही सब कुछ कह जाती है। न स्पष्टीकरण की ज़रूरत होती है, न किसी को साबित करने की।
हमारी ऊर्जा, हमारी शांति, और हमारा संतुलन स्वयं ही संदेश बन जाते हैं।
इस आत्म-उन्नति की यात्रा में कोई प्रतियोगिता नहीं, कोई हार नहीं — केवल विकास है, केवल शांति है।
मैंने दौड़ नहीं छोड़ी है,
मैंने दिशा बदली है — बाहर से भीतर की ओर।
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