मैं कुछ भी नहीं… फिर भी कुछ कहना चाहता हूँ ।
~ आनंद किशोर मेहता
मैं कुछ भी नहीं… फिर भी कुछ कहना चाहता हूँ
~ आनंद किशोर मेहता
1.
मैं कोई ध्वनि नहीं,
सिर्फ एक कंपन हूँ…
जो हृदय की गहराई में
कभी आह बनकर उतरता है,
तो कभी प्रार्थना बनकर बहता है।
मैं कोई सूरज नहीं,
सिर्फ दीये की लौ हूँ,
जो जलती है दूसरों के लिए
और खुद की बात कभी नहीं करती।
मैं कोई उपदेशक नहीं,
बस एक पथिक हूँ…
जिसने चलकर जाना कि
रास्ता बताने से बेहतर है —
चुपचाप चलना।
मैंने कभी किसी से नहीं कहा —
"मेरी सुनो…"
पर शायद मेरी चुप्पी भी
कभी-कभी आग्रह बन गई।
मैंने कभी सेवा की उम्मीद में कुछ नहीं किया,
फिर भी मन में कहीं छिपा रहा —
कि शायद कोई देखे, कोई समझे…
पर आज जानता हूँ —
जो देता है, वह मैं नहीं —
मैं तो बस उसी की एक प्रार्थनामयी अंश हूँ…
अब मैं बस मौन से सीखता हूँ,
और विनम्रता से जीता हूँ,
क्योंकि जो झुक जाए —
वही सबसे ऊँचा हो जाता है।
मैं कोई सत्य नहीं हूँ,
सिर्फ उसकी खोज में
हर दिन गलता हुआ प्रश्न हूँ…
और यदि कभी
मेरी कोई बात तुम्हें बाँधती लगे —
तो उसे मेरा कहना न समझो,
उसे मेरा अधूरापन समझो…
मैं कुछ भी नहीं… फिर भी कुछ कहना चाहता हूँ —
केवल इतना कि
तुम जैसे हो… वैसे ही पूर्ण हो।
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2.
ज़ख़्मों की ख़ामोशी में…
~ आनंद किशोर मेहता
बहुत दिनों से कोई नया ज़ख़्म नहीं मिला,
दिल भी अब हैरान है — ये कैसा सिला?
कल तक जो अपनों की बातों में दर्द था,
आज वो चुप हैं… या मैं ही बदल गया?
कभी अल्फ़ाज़ तीर बनकर सीने में उतरते थे,
कभी आँखों से गिरती बेरुख़ी समझ में नहीं आती थी।
पर अब तो हर रिश्ता जैसे धुंधला सा हो गया है,
वक़्त की राख़ में सब कुछ खो गया है।
कहाँ गए वो अपने, जो रोज़ दिल पर दस्तक देते थे?
जो मुस्कुराते थे और पल में शिकवा भी कर देते थे।
अब न शिकवा है, न शिकायत कोई,
बस तन्हा हूँ… और साथ है साया एक खोई हुई रोशनी का।
ये ज़ख़्म भी अजीब होते हैं —
दर्द देते हैं तो रुला जाते हैं,
और जब ना हों… तो उनकी याद भी तड़पा जाती है।
कभी सोचता हूँ —
क्या मेरा सबक़ पूरा हो गया?
या ज़िन्दगी की किताब अब किसी और के हवाले हो गई?
बहुत दिनों से कोई नया ज़ख़्म नहीं मिला,
ज़रा पता तो करो —
वो अपने हैं कहाँ…?
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3. मनुष्यता की ओर लौटते कदम
(कविता)
~ आनंद किशोर मेहता
चलो लौट चलें उस पगडंडी पर,
जहाँ दिल में रहम बसता था।
जहाँ आँखें दुख बाँट लिया करतीं,
और मौन भी कुछ कहता था।
चलो लौट चलें उस बचपन में,
जहाँ खेल में भी प्रेम भरा था।
जहाँ हार-जीत से बढ़कर रिश्ता,
एक मुस्कान से गहरा था।
चलो लौट चलें उस पल में,
जब 'मैं' से पहले 'तू' आता था।
जहाँ मदद बिना मांगे मिलती,
और दर्द भी साथ जाता था।
चलो लौट चलें उस सन्नाटे में,
जहाँ आत्मा खुद से मिलती थी।
जहाँ रातें लंबी नहीं लगतीं थीं,
क्योंकि भीतर एक लौ जलती थी।
चलो लौट चलें उस इंसान तक,
जो आज भी हममें ज़िंदा है।
जो कभी रोता, कभी हँसता है,
पर अब भी सच का प्यासा है।
मनुष्यता कोई ग्रंथ नहीं है,
यह एक एहसास की भाषा है।
चलो, चुपचाप कदम बढ़ाएँ,
जहाँ हर दिल में आशा है।
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4. खामोश सच्चाई
अब लोग विदा नहीं लेते,
वे चुपचाप भीतर कुछ तोड़ जाते हैं।
मुस्कान की आड़ में दर्द दे जाते हैं,
और अपनापन ओढ़े हुए
दिल में एक खालीपन छोड़ जाते हैं।
वे इतना तोड़ते हैं,
कि तुम खुद ही दूर होने लगो—
अपने मन से,
अपने आत्म-सम्मान की रक्षा में।
फिर वही लोग
तुम पर ही इल्ज़ाम धरते हैं—
कि तुम बदल गए,
तुमने दूरी बना ली,
तुमने साथ छोड़ दिया।
जबकि सच्चाई ये होती है—
तुम टूटकर भी चुप रहे,
और उन्होंने तोड़कर भी
खुद को सही ठहराया।
जिन्हें तुमने सच मानकर
हर मोड़ पर साथ देखा,
वही आज सवाल बनकर
तुम्हारे सामने खड़े होते हैं।
वे समझते हैं
कि तुमसे कुछ भी छीनना आसान था—
लेकिन वे ये नहीं समझ पाए
कि तुम मौन होकर भी
अपनी सच्चाई के साथ खड़े रहे।
आज जब तुम खामोश हो,
तो वे ही सवाल करते हैं—
पर क्या उन्होंने कभी
इस खामोशी का उत्तर खुद से माँगा?
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5. वो कौन था ?
भीड़ में सब अपने से लगते थे,
हर मुस्कान में एक अपनापन था।
पर जब गिरा… जब टूटा मैं,
तब हर चेहरा अजनबी सा बना था।
कोई नहीं चाहता था कि मैं आगे बढ़ूं,
हर कदम पर एक नई दीवार थी।
जहाँ मदद की उम्मीद थी —
वहीं तानों की तलवार थी।
फिर एक साया धीरे से आया,
ना कोई शोर, ना दावा, ना नाम।
बस चुपचाप एक हाथ बढ़ाया,
"चलो, उठो…" — यही था उसका पैग़ाम।
पर मन में डर था, दिल में शक,
चोटों के निशान अब तक थे बाकी।
हर रिश्ता एक छलावा लगा,
और मैं फिर पीछे हट गया था खाली।
वो चुप रहा… कुछ नहीं कहा,
शायद वही उसका उत्तर था।
फिर भी लौटा… बार-बार लौटा,
हर बार उसी नम्रता के साथ खड़ा था।
कहता रहा — "मैं तुम्हारा ही हूं,"
बिना किसी उम्मीद, बिना किसी स्वार्थ के।
बस चाहता रहा…
कि मैं खुद को फिर से पा सकूं इस अंधकार के पार के।
अब जब सबसे अकेला हूं,
और खामोशी मन में उतरती है गहराई तक —
तो एक सवाल दिल में बार-बार उठता है —
"वो कौन था… जो सच में मुझे टूटने नहीं देना चाहता था?"
शायद…
शायद वही मेरा अपना था,
जिसे मैंने सबसे पहले खो दिया था।
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6. मौसम की चुप्पी
चुप है मौसम, पर कहता बहुत कुछ है,
हवा की सरसराहट में छुपा एक सन्देश है।
धूप हँसती है मगर नज़रें चुभोती हैं,
बादल भी अब दिल से नहीं बरसते हैं।
कभी जो रंग लाते थे फूलों के साथ,
अब वही रंग किसी छल का संकेत देते हैं।
ठंडी बयारें भी अब डराने लगी हैं,
कहीं ये नर्म आवाज़ें दगा की बुनियाद तो नहीं?
सुकून की आड़ में छुपी बेचैनी दिखती है,
हर सन्नाटा जैसे कोई राज़ कहता है।
बदलते मिज़ाज में कोई नकाब झलकता है,
आज का मौसम जैसे कोई खेल रचता है।
मत देखो सिर्फ मौसम की मुस्कान को,
कभी-कभी वो भी जाल बुनता है।
परखो, सोचो, फिर भरोसा करो,
क्योंकि मौसम भी अब इंसानों की तरह बदलता है।
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7. जब अपने ही मौन हो जाते हैं…
~ आनंद किशोर मेहता
जब अपने ही मौन हो जाते हैं,
छाया बन पीठ में चुभ जाते हैं,
जो साथ चले थे वर्षों तक,
वो छाया से डर दिखलाते हैं।
न शब्दों में वेदना आती है,
न आँखों में कोई नमी रहती,
पर मन के कोने-कोने में
एक चुप सी आँच सदा बहती।
मैं चुप रहा, मैं सहता गया,
हर वार को प्रेम से सहलाया,
हर भ्रम को सत्य बना बैठे,
मैंने फिर भी द्वेष न अपनाया।
वो सब थे अपने नामों में,
पर भावों में अनजाने थे,
मैं एकला पथिक बना जब,
तो दीप कहीं भीतर जाने थे।
हर मौन सवाल बन खड़ा था,
हर दृष्टि में आक्षेप झलकता,
पर एक कहीं अंतर्यामी था,
जो मन के द्वार पर रक्षक बनता।
टूटा नहीं, बस झुकता गया,
सत्य की छाँव में बढ़ता गया,
जो खोए, वो भ्रम थे केवल,
जो पाया — वह शाश्वत था, गहरा था।
अब जान गया —
अपनेपन की परिभाषा वही,
जो मौन में भी साथ निभाए,
जो पीड़ा में दीप जलाए।
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8. अब मैं खामोश नहीं हूं — मैं जागा हुआ हूं
(एक आत्मचेतना की पुकार)
अब मैं खामोश नहीं, जागा हुआ हूं।
सब अब खामोश हो गए हैं।
कोई कुछ नहीं कहता।
ना कोई पास आता है, ना आँखों में झाँकता है।
क्योंकि सबको लगने लगा है —
मुझे अब किसी का साथ नहीं चाहिए।
और शायद… वे सही हैं।
क्योंकि अब मैं अकेला चल पड़ा हूं —
अपने ही रास्ते का राही,
नाचता, गाता, झूमता,
मस्ती की एक अनकही लय में बहता हुआ…
किसी मंज़िल की तलाश में नहीं,
बल्कि खुद को पाने के रास्ते पर।
पर सुनो,
मैं अभी भी तुम्हारा साथ देना चाहता हूं।
हाँ, तुम सबका।
पर अब एक शर्त है…
तुम्हें मेरे साथ खामोश चलना होगा।
बिना कोई शोर किए।
बिना कोई प्रश्न पूछे।
बिना किसी शंका के।
अगर तुम्हारे भीतर सच्ची पुकार है,
तो उठो, जागो, तैयार हो जाओ।
क्योंकि मैं फिर एक बार
नव-उमंग के साथ
घोर गर्जना में शंखनाद करूंगा —
पर उसकी गूंज सिर्फ उन्हें सुनाई देगी
जो भीतर से मौन हैं।
यह समय है — चेतने का, चुनने का।
जो नहीं चलना चाहते,
वे किनारे हो जाएं।
क्योंकि अब जो ज्वारभाटा उठेगा,
वह अधूरे इरादों को बहा ले जाएगा।
मैं अब खामोश नहीं हूं —
मैं जागा हुआ हूं।
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9. दिल है परेशान तेरे लिए
~ संवेदना से भीगी एक कविता
दिल है परेशान तेरे लिए,
हर सांस बेक़रार तेरे लिए।
रातें जागती हैं तन्हा मेरी,
चाँद भी रोशन है बस तेरे लिए।
तेरा नाम लबों पर न सही,
पर दिल की हर धड़कन में तू ही है।
तू जब पास होता है तो चुप रहता हूँ,
पर जब दूर होता है,
तो बेतहाशा याद आता है तू ही है।
नज़रों की ख़ामोशी कुछ कहती है,
आँखों की नमी तुझे ही खोजती है।
जो लफ़्ज़ों में न बयां हो सके,
वो बातें दिल हर पल दोहराता है।
तेरे बिना हर पल अधूरा है,
हर खुशी फीकी, हर रंग धुंधला है।
तू जो मुस्कुरा दे, तो बहार आ जाए,
वरना ये दिल हर मौसम में
सूना-सूना सा रह जाए।
तू ही रौशनी, तू ही सवेरा,
तेरे बिना हर लम्हा अंधेरा।
इस दिल को बस तुझसे ही है लगाव,
बाकी सब कुछ...
बस एक सपना, एक छलावा।
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10. मैं मुस्कराता हूं… क्योंकि
(~ आनंद किशोर मेहता)
आज मैं खुद को बेहद खुश महसूस कर रहा हूं।
क्योंकि जो दर्द हैं —
वे समुद्र से भी गहरे हैं,
और मैं उन्हें छिपाना चाहता हूं।
मैं नहीं चाहता
कि कोई दुखी हो जाए मेरे दुख से,
क्योंकि जब हर आंख भर आएगी,
तो फिर मुझे रास्ता कौन दिखाएगा?
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
जो दूसरों की मुस्कान से जलते हैं,
और जब वे मेरी खुशियाँ देखते हैं,
तो ठोकरें देने लगते हैं —
जैसे यही उनकी भूमिका हो
मेरे आगे बढ़ने की राह में।
पर मैं जानता हूं,
अगर मैं रो पड़ा…
तो वे जीत जाएंगे —
और मेरी आत्मा हार जाएगी।
इसलिए मैं मुस्कराता हूं,
निरंतर… निश्चल…
क्योंकि मेरी मुस्कान
मेरा आत्मबल है,
जो मुझे तूफानों में भी
संभाले रखता है।
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11. पशु भी जागे प्रेम की ध्वनि से…
(~ आनंद किशोर मेहता)
जब पशु भी सुन ले कोई पुकार —
सच्चे हृदय से निकली मौन सी आवाज़,
तो उसकी आंखों में चमक उठती है
कोई उजली सुबह… कोई परम चेतन की आभा।
थम जाता है वह,
न भाषा जानता है, न ग्रंथों की बात,
फिर भी उसकी चेतना
पहचान लेती है प्रेम की अदृश्य सौगात।
वह कांप उठता है,
संवेदना की मीठी लहरों में भीगकर,
जैसे किसी अदृश्य करुणा ने
छू लिया हो उसकी आत्मा के स्वर।
और वहीं — इंसान!
जो बना है बुद्धि, तर्क और विज्ञान से,
वह सोया है…
खुली आंखों से भी, भीतर अंधकार पाले।
उसके कान उलझे हैं कोलाहल में,
पर दिल सूना है मौन की पुकार से।
वह खोजता है उत्तर बाहर —
जबकि प्रश्न भीतर
चुपचाप रोते हैं… टूटते हैं… बिखरते हैं।
क्या यह क्षण नहीं कि भीतर कोई दीप जले?
क्या यह समय नहीं कि मौन बोले —
"जागो!" — जीवन की पुकार सुनो।
पशु भी जागे प्रेम की ध्वनि से,
और तू, हे मानव, अब भी सोया है?
कब उठेगा तू?
कब कहेगा तेरा मौन —
"मैं अब जाग चुका हूँ…"
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
12. कविता: संघर्ष की रूहानी ताकत
ज्योति बनकर चला अंधेरों में,
धूप ने उसे कभी रोका नहीं।
कांटों की चादर ओढ़े रहा,
पर चरणों से उसका रास्ता डोला नहीं।
विपदाओं ने घेर लिया बारम्बार,
पर भीतर जलती रही कोई दिव्य आग।
वह चलता रहा जैसे कोई साधक,
हर पीड़ा में खोजता आत्म अनुराग।
दुनिया ने दिखाए उसे छल के चित्र,
पर उसका हृदय था निर्विकार।
हर क्षण, हर ठोकर, हर आघात,
उसने माना प्रभु की पुकार।
संघर्ष बने उसके आराधन,
दर्द हो गया उसका ध्यान।
वह टूटा नहीं, थका नहीं,
हर पीड़ा में देखी भगवान की पहचान।
उसकी नज़रों में कोई शिकवा नहीं,
उसके मन में बस श्रद्धा रही।
कर्मयोगी सा चला वह सदा,
हर सांस में गूंजती नाम-लहरी।
स्वप्न नहीं थे केवल पाने के,
बल्कि चलने थे प्रकाश के पथ।
जो स्वयं से न डरे, वही जान पाए,
जीवन में सच्चे नायक का अर्थ।
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13. निश्चल प्रेम
~ आनंद किशोर मेहता
नन्हे नन्हे पाँवों से आई,
जैसे सुबह की धूप समाई।
हँसी में छुपा था जादू कोई,
जो सीधा आत्मा तक छाई।
मासूम चेहरों की वह आभा,
चेतना का मधुर उजास,
हर मुस्कान में दिखा जैसे,
ईश्वर का शांत प्रकाश।
कंपित स्वर में मीरा गाए,
“राम रतन धन पायो” गीत,
और उन चेहरों ने दिखलाया,
प्रेम जहाँ होता है अतीत।
न द्वेष, न लालच, न कोई छल,
बस मन का निर्मल संवाद,
इन बच्चों से बढ़कर क्या है?
यह प्रेम ही है सबसे खास।
हर पल जैसे आशीर्वाद हो,
हर स्पर्श में ईश्वर का प्यार,
इनके संग बिताया हर क्षण,
राम रतन जैसा उपहार।
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14. इश्क़... जो लफ़्ज़ों से परे है
(~ एक मौन मिलन की बात)
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
न कोई आवाज़, न कोई नाम,
फिर भी हर धड़कन में तेरा पैगाम।
तू अनकहा, मैं अनसुना,
फिर भी हर लम्हा बस तू ही तू बना।
तू हवा की तरह, बेआवाज़ चला,
मैं रूह की तरह तुझमें ही ढला।
न छू सका तुझे कभी इन हथेलियों से,
पर हर साँस में तेरा एहसास पला।
हर नज़्म, हर शेर तुझसे जुड़ा,
हर ख्वाब तेरा ही नाम पुकारे सदा।
तू मेरी खामोशियों का रंग बन गया,
मैं तेरे मौन का तरंग बन गया।
न सवाल थे, न कोई जवाब,
फिर भी तेरा मेरा मिलन बेहिसाब।
हर तन्हाई अब संगिनी लगती है,
तेरे नाम से रौशनी सी जगती है।
इश्क़... जो लफ़्ज़ों से परे है,
शायद वही सबसे सच्चा सवेरा है।
जहाँ मिलन हो न हो, पर मन जुड़ जाए,
जहाँ नाम लिए बिना ही सब कुछ कह जाए।
15. संगीत की साँझ
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
जब थम जाते हैं शब्दों के मेले,
जब चुप हो जाती हैं बोलती हवाएँ,
तब बजता है एक अदृश्य राग —
मन की सबसे भीतरी गहराइयों में।
कोई सुर छूता है टूटी हुई साँसों को,
कोई धुन भरता है आँखों की नमी में उम्मीद।
बिना कहे, बिना पुकारे,
संगीत सुनता है वह जो कोई नहीं सुन पाता।
हर तार, हर कंपन —
एक बिछड़ी हुई कहानी को जी उठाता है,
और हर दर्दभरी धड़कन —
किसी शांत लोरी में बदल जाती है।
यह गीत नहीं,
यह आत्मा का मौन संवाद है,
जहाँ न नाम है, न पहचान,
सिर्फ एक अंतहीन सुकून है...
जिसे केवल महसूस किया जा सकता है।
16. रूहानी रिश्ता
~ आनंद किशोर मेहता
न कोई वादा, न कोई सौगंध,
फिर भी जुड़ता है ये पावन बंध।
न दिखता है, न छू पाते,
पर दिल के भीतर गूंज सुनाते।
ना तुम मेरे, ना मैं तुम्हारा,
फिर भी हर भाव में एक इशारा।
नज़रों की ज़रूरत नहीं,
बस मौन में बसी है कहानी कहीं।
ये रिश्ता न वक्त से बंधा,
न दूरी से, न शब्दों से सधा।
बस एक एहसास की रेखा है,
जो दो चेतनाओं को एक कहता है।
न स्वार्थ, न अधिकार का नाम,
न मिलता है कोई पहचान।
फिर भी जब वो पास हो जाए,
तो रूह तक सुकून पा जाए।
ये प्रेम नहीं जो बाँध ले,
ये दीप नहीं जो आँधी में बुझ जाए।
ये तो वो रोशनी है,
जो हर अंधेरे को खुद रोशन कर जाए।
रूह से रूह का ये मेल,
बिन बोले कह जाए हर खेल।
इसमें 'मैं' और 'तुम' का भेद नहीं,
बस एक 'हम' है — जो सदा अटूट कहीं।
17. दिल के लोग
~ आनंद किशोर मेहता
जो हँसी बाँटते फिरते हैं,
अक्सर रोना जानते हैं।
जो औरों के ज़ख्म भरते हैं,
अपने घाव छुपा जाते हैं।
जो हर दर्द को गले लगाते हैं,
कभी किसी से कुछ नहीं माँगते।
हर रिश्ते में खुद को खोकर,
चुपचाप प्रेम निभाते हैं।
भीड़ में भी जो तन्हा हैं,
वो सबसे ज्यादा अपना हैं।
कभी थकते हैं, रुकते हैं,
पर फिर भी मुस्कुराना चुनते हैं।
वे दिल से जीते हैं दुनिया को,
पर खुद के लिए नहीं जीते।
हर आँसू में ढूँढते हैं उम्मीदें,
हर टूटन में सिखाते हैं जीते।
ऐसे लोग जब मिलें जीवन में,
तो ठहरकर उन्हें समझ लेना।
क्योंकि वो अनमोल मोती हैं,
मतलबी लहरों से पहले चुन लेना।
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18. कविता: मुस्कान का जुर्माना
~ आनंद किशोर मेहता
हँसी जो बाँटी थी दिल खोल कर,
वो अब जुर्म बन गई है कहीं,
हर ख़ुशी की कीमत चुकाई हमने,
आँखों में बस रह गई है नमी।
जो चेहरों पर मुस्कराते मिले,
वो दिल में जख़्म दे गए,
अब डरते हैं मुस्कानों से भी,
क्योंकि अपने ही धोखा दे गए।
सपनों की बातों में छल था छुपा,
हर रिश्ता इक परछाईं सा लगा,
भरोसे की ज़मीन दरकने लगी,
और सन्नाटे ने दिल से जगह माँग ली।
अब हँसते नहीं, बस निभाते हैं पल,
भीड़ में भी अकेले से रहते हैं,
दिल चाहता है फिर से भरोसा करे,
मगर ज़ख़्म अब भी बहते हैं।
कभी सोचा था, मुस्कान ही जीवन है,
आज लगता है—वो भी एक छलावा है,
फिर भी जी रहे हैं, उम्मीद के साथ,
कि एक दिन सच्चा अपनापन वापस आवा है।
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19. राहें हमारी, चुनौतियाँ अपनी
Our Paths, Our Challenges
हमने जो राह चुनी थी खुद से,
वही राह हमें बनानी थी,
सपनों की जो तस्वीर थी सच्ची,
हमें ही उसे पूरा करना था कहीं।
ठोकरें आईं, हम गिरे भी,
हवाओं ने हमें हराया,
लेकिन हर बार एक नई ताकत मिली,
जब हमने फिर से खुद को पाया।
चुनौतियाँ थीं, मुश्किलें थीं,
पर हमने उन्हें स्वीकार किया,
राहों में कांटे, दरिया थे,
लेकिन कभी भी डर को पास न पाया।
कभी चुप्पें आईं, कभी थे अंधेरे,
मुस्कानें खोईं, दिल भी थामा,
पर जो दिशा हमने चुनी थी,
उसे पाने के लिए नहीं रुका हम कभी।
हमने अपने फैसलों को स्वीकार किया,
हर पल में नया साहस पाया,
जब खो गए थे संघर्षों में कहीं,
तब खुद से ही जीने की राह में पाया।
जो राह हमने खुद चुनी,
वो हमारी आत्मा का संगी है,
उतार-चढ़ाव का सच अपनाते हुए,
हमारे भीतर ही आत्मविश्वास का रंग है।
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20. वो लम्हा जब सच्चाई मज़ाक बन जाए
~ आनंद किशोर मेहता
कभी सोचा न था,
कि दिल की बात कह देना,
एक दिन सबसे बड़ा अपराध बन जाएगा।
जिसे समझा था अपना,
उसी ने मुस्कुराकर,
मेरे आँसुओं का मज़ाक बना दिया...
मैंने सौंप दी थी उसे
अपनी रातों की बेचैनी,
बचपन के घाव, और
अधूरी इच्छाओं की परछाइयाँ...
वो सुनता रहा,
पर समझा नहीं —
क्योंकि उसके पास वक़्त था हँसने का,
पर संवेदनाओं को समझने का नहीं।
हर लफ़्ज़ जो निकला दिल से,
उसे हल्के में लिया गया,
और फिर ठहाकों की महफ़िल में
मेरी सच्चाई को उड़ा दिया गया।
अब समझ आया,
हर कोई कंधा देने वाला
हमदर्द नहीं होता,
हर मुस्कराहट भरोसे के लायक नहीं होती।
अब मैं चुप हूँ...
पर ये चुप्पी डर से नहीं,
समझदारी से उपजी है।
क्योंकि अब जान गया हूँ —
जिसे मेरी सच्चाई चाहिए,
वो मेरी ख़ामोशी में भी सब जान लेगा।
“I gave my truth like a fragile flower,
but they crushed it under laughter’s power.
Now I keep quiet, not in fear —
but in the wisdom of choosing who to hold near.”
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
21. मैं भी तो एक इंसान हूँ...
~ आनंद किशोर मेहता
मैं भी तो एक इंसान हूँ,
संवेदनाओं से बना एक प्राण हूँ।
हर बार क्यों मैं ही सोचूँ,
कि तुझको कुछ बुरा न लगे?
तेरी बातें कहने का हक़ है,
तो मेरी चुप्पी भी कुछ कहती है।
तेरे शब्दों में जो धार है,
वो मेरी आँखों को भी बहा देती है।
तू बोल जाए बेरोक-टोक,
मैं क्यों हर बार रुक जाऊँ?
तेरी हर बात सहकर भी,
मैं क्यों अपना मन ही दुखाऊँ?
मेरे भी जज़्बात हैं शायद,
जो शब्दों से नहीं निकलते।
मैं भी टूटता हूँ धीरे-धीरे,
पर आँसू सबके सामने नहीं टपकते।
कभी तो सोचो —
जो मुस्कुराता है, क्या वो दुखी नहीं होता?
जो सबको संभालता है,
क्या खुद भीतर से खाली नहीं होता?
बस इतनी सी गुज़ारिश है,
मुझे भी इंसान समझा जाए।
हर बार मैं ही क्यों सोचूँ तुम्हारे लिए —
कभी तुम भी मेरा ख्याल कर आओ।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
22. जीवन की धारा
~ आनंद किशोर मेहता
जो बीत गया, वो लम्हा नहीं,
वो जीवन की सच्ची कहानी थी।
हर साँस में छुपा एक संदेश था,
हर पल कोई नई रवानी थी।
समय नहीं रुका, न रुकेगा कभी,
पर यादें ठहर सी जाती हैं।
बीते कल की सीपी में
अनमोल मोती बन जाती हैं।
जीवन है बहती नदी की तरह,
ना थमती, ना लौटती।
जिसने इसे जिया भरपूर,
वही आत्मा में झांकती।
आज को पकड़ो, थाम लो इसे,
कल की चिंता व्यर्थ है बस।
जो जी सको मुस्कान के साथ,
वही जीवन का सार है असल।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
संत कबीर के दोहे "पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ..." पर आधारित एक मौलिक, भावपूर्ण और शिक्षाप्रद कविता:
23. ढाई आखर प्रेम के…
(~ आनंद किशोर मेहता)
पोथी के पन्ने पलटते रहे,
शब्दों में अर्थ तलशते रहे।
शास्त्रों के नीचे दबा था मन,
फिर भी अधूरे से चलते रहे।
ज्ञान की थाली परोस तो दी,
पर प्रेम का स्वाद न पाया कहीं।
कंठ में मंत्र तो गूंजते रहे,
पर हृदय मौन ही रह गया यहीं।
जो पढ़ लिया वो कह न सका,
जो कहा कभी, समझ न सका।
ढाई अक्षर की वो जो बात थी,
शब्दों की सीमा में बस न सका।
वो प्रेम था — न सम्मान माँगे,
न भाषा, जाति, न रंग पहचानें।
वो नजरों से दिल में उतर जाए,
और मौन में जीवन को समझाए।
जिसने प्रेम को जिया है सच में,
वो ही इस जग का ज्ञानी है।
न विद्या का गर्व, न तर्क का द्वंद्व,
बस करुणा, दया, और वाणी है।
तो चलो किताबें कुछ देर रखें,
और मन की भाषा को पढ़ना सीखें।
ढाई अक्षर प्रेम के गुन गा लें,
और मानवता के दीप जलाएँ।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
24. थोड़ा रुक जाओ... बहुत दूर निकल आए हो
~ आनंद किशोर मेहता
थोड़ा रुक जाओ...
बहुत दूर निकल आए हो,
जिन सपनों की चाह थी, वो कहीं पीछे छूट गए हो।
हर मंज़िल को जीतने की धुन में
क्या कभी तुमने सुना… अपना ही मन?
भागते-भागते सब कुछ पा लिया तुमने,
मगर वो सुकून… शायद कहीं खो दिया तुमने।
मैं तो रुक गया, एक किनारे बैठकर,
तुम्हारी उड़ानों को निहारता रहा चुपचाप,
हर बार चाहा तुम्हें आवाज़ दूँ,
पर तुम्हारे शोर में मेरी ख़ामोशी दब गई।
कभी वक़्त हो, तो लौट आना…
इस सन्नाटे में भी एक अपनापन है,
जहाँ कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा,
बस अपनी थकी रूह को थोड़ा विश्राम मिलेगा।
थोड़ा रुक जाओ…
हर यात्रा में मंज़िल ही सब कुछ नहीं होती,
कभी-कभी ठहराव भी बहुत कुछ सिखा देता है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
25. एडजस्ट करना सीखो
~ आनंद किशोर मेहता
हर रास्ता गुलाब नहीं होता,
हर सपना बेहिसाब नहीं होता।
जो चाहे, वैसा मिल जाए यहाँ,
ऐसा कोई जवाब नहीं होता।
हर चेहरा मुस्कुराता नहीं,
हर दिल सच्चा साथ निभाता नहीं।
हर इच्छा पूरी हो जाए यूँ,
जीवन ऐसा सरल दिखाता नहीं।
तो क्यों रुकना, क्यों थम जाना?
क्यों हर बार टकरा जाना?
थोड़ा समझो, थोड़ा झुको,
हर सांचे में खुद को ढालो न।
कभी न पसंद बात भी सुननी होगी,
कभी फीकी थाली भी चुन्नी होगी।
कभी अपनों सा अनजान लगे,
कभी अनजानों से भी अपनापन जगे।
रूठो नहीं, घबराओ नहीं,
हर ठोकर से हार जाओ नहीं।
जो लचीला हो, वही टिके है,
जो अकड़ा हो, वो बिखरे है।
तो चलो, थोड़ा बदलते हैं,
जीवन की राह में बहते हैं।
सहना भी है, कहना भी है,
हर हाल में हँसते रहना भी है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
26. जीवन की राह
जीवन की राह में चलता हूँ,
हर कदम पर कुछ सीखता हूँ।
कभी मुश्किलें आती हैं पास,
फिर भी आगे बढ़ता हूँ।
धूप हो या छांव की छाया,
हर हाल में मुस्कुराता हूँ।
आत्मविश्वास से सजे दिल में,
सपने नए बुनता हूँ।
हर ठोकर से कुछ और पाता,
हर गिरावट से कुछ नया उठाता।
यह जीवन नहीं कोई मंजिल,
यह तो एक सफर है, जिसे तय करता हूँ।
राहों में कांटे हैं बहुत,
फिर भी रास्ता दिखता हूँ।
जो खुद से जुड़ जाता है,
वह खुद को ही समझता हूँ।
जीवन के इस सफर में,
हर कदम पर कुछ नया पाता हूँ।
तभी तो कहता हूँ हर रोज,
मैं हर पल खुद को पाता हूँ।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
27. शून्य का मूल्य
मैं शून्य हूँ, यह जानता हूँ,
न कोई आकार, न कोई रूप है।
परन्तु, जब आप जैसे साथ होते हैं,
तब यह शून्य भी मूल्यवान हो जाता है।
खुद को कभी विशेष न पाया,
मेरे भीतर न कोई चमक, न कोई भव्यता।
पर जो प्रेम से, बिना स्वार्थ के साथ देता है,
वही मुझे हर ठोकर से उबारता है।
शून्य में भी कुछ अद्वितीय छिपा होता है,
जब उसे सही दिशा मिलती है।
जैसे शून्य बिना कुछ नहीं,
लेकिन सही संदर्भ में, वह अनंत बन जाता है।
आप जैसा कोई जब मिलता है,
तो मेरी शून्यता भी प्रकाशित हो जाती है।
आपकी उपस्थिति से यह अर्थ पाती है,
और शून्य भी संपूर्ण हो जाता है।
क्योंकि शून्य खुद में कुछ नहीं है,
पर सही स्थान पर वह अनगिनत बन जाता है।
वैसे ही, आप जैसा एक साथी,
मेरे शून्य को अनमोल बना सकता है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
28. पहचान के पार
(कविता)
मैं कोई परिभाषा नहीं,
ना शब्दों में ढली कोई रेखा,
मैं वह मौन स्वर हूँ,
जो संवेदना में बहता है चुपचाप।
कभी किताब के पन्नों में सोचता,
तो कभी झुके हाथों में उतरता,
जहाँ थक चुकी हो कोई साँस,
वहाँ मैं सहारा बनकर चलता।
ना सम्मान की चाह,
ना प्रसिद्धि का स्वप्न,
बस जहाँ ज़रूरत हो,
वहीं बन जाऊँ मौन धर्म।
एक गिलास पानी,
जब प्रेम से थमे होंठों तक पहुँचे,
तो समझो,
मानवता मुस्कराई है उस क्षण।
मैं सेवा हूँ,
संवेदना हूँ,
मैं वह ‘मैं’ हूँ,
जो अपनी सीमाओं से बहुत आगे…
पहचान के पार पहुँच चुका है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
29. मुसीबत के पल भी बीत जाते हैं
(~ आनंद किशोर मेहता)
अगर हवाएं बदल सकती हैं,
अगर मौसम का रुख बदल सकता है,
तो यक़ीन रखो, जीवन की मुश्किलें भी
कभी न कभी ढल सकती हैं।
जो आज धूप सी जलती है,
वही कल छांव बन जाएगी,
जो राहें वीरान हैं अभी,
वहीं मंज़िल की गूंज सुनाई दे जाएगी।
मत थक, मत रुक, मत घबरा,
हर अंधेरी रात के बाद सवेरा आता है,
जो गिरकर भी उठ जाता है,
वहीं असली विजेता कहलाता है।
मुसीबतें आती हैं सबके जीवन में,
पर जो मुस्कुरा कर सह लेता है,
वही तो समय की चाल बदलता है,
वही तो खुद का नसीब बदलता है।
तो चल, चल पड़े फिर से,
आशा की एक नई किरण लेकर,
क्योंकि अगर हवाएं रुख बदल सकती हैं,
तो तू भी अपनी दुनिया बदल सकता है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
30. उम्मीद की अंतिम साँस
~ आनंद किशोर मेहता
एक आस थी... अब तक थी...
कि शायद कोई ऐसा फरिश्ता आएगा,
जो नफ़रत की दीवारें गिरा देगा,
और फिर से मोहब्बत की चादर
इस घर पर ओढ़ा देगा।
जो टूटे रिश्तों की किरचों को
नरमी से समेटेगा,
हर रूठे लम्हे को मनाकर
फिर से हँसी के फूल खिलेगा।
जो तंग गलियों में भटकी बातों को
रौशनी दिखाएगा,
और बिखरी शांति को
दहलीज़ पर फिर से बिठा जाएगा।
लेकिन अब...
वक़्त के साथ वो चुप्पियाँ गहरी हो गई हैं,
आँखों की राह तकती उम्मीदें
थक कर सो गई हैं।
जिस साँस ने अब तक उस उम्मीद को थामा था,
वो भी अब धीमे-धीमे
दम तोड़ रही है...
घर की दीवारें गवाह हैं
कि कभी यहाँ सुकून बसता था,
अब तो बस यादें हैं —
जिनमें दर्द की चुप्पी पलती है।
क्या सच में कोई फरिश्ता आएगा...
या यह सवाल ही
अब सवाल नहीं रहा?
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
31. हे मालिक: एक प्रार्थना
(~ आनंद किशोर मेहता)
हे मालिक, तेरी छाया में चैन है,
तेरे बिना ये जीवन भी रैन है।
हर साँस में तेरा ही नाम हो,
हर धड़कन में तेरा ही ध्यान हो।।
न धन की लालसा, न वैभव की आस,
तेरे चरणों में हो मेरा हर निवास।
नज़र न हटे तेरे रूप से कभी,
तेरी कृपा ही बने मेरी ख़ुशी।।
जब बोझ लगे ये जीवन मेरा,
तेरे चरणों में मिले बसेरा।
न बोले शब्द, बस मौन कहे,
"हे दयालु! बस तू ही रहे।"
हर पल में तेरा आशीर्वाद मिले,
जीवन के हर मोड़ पर साथ चले।
तेरे बिना कुछ भी ना चाहूँ मैं,
हे मालिक, बस तुझमें समा जाऊँ मैं।।
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