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Showing posts from May, 2025

Home Tutor Essence

शिक्षा: भविष्य का ज्योत  शिक्षा केवल किताबी ज्ञान का नाम नहीं है; यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाती है। यह हमारे अंदर सोचने, समझने, और सही-गलत का भेद करने की शक्ति पैदा करती है। शिक्षा एक दीपक है, जो अज्ञान के अंधेरे को मिटाकर भविष्य को उजाले से भर देती है। एक शिक्षित व्यक्ति अपने जीवन को ही नहीं, बल्कि अपने परिवार, समाज और देश को भी रोशन करता है। शिक्षा का उद्देश्य वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री प्राप्त करना या नौकरी पाना नहीं होना चाहिए। शिक्षा हमें चरित्र निर्माण, नैतिक मूल्यों को समझने, सहानुभूति और सहिष्णुता जैसे गुणों को विकसित करने का अवसर देती है। यह हमें सिखाती है कि कैसे हम अपनी क्षमताओं का सही उपयोग करके अपने और समाज के लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं। वर्तमान चुनौतियाँ आज के समय में शिक्षा में कई चुनौतियाँ भी सामने आ रही हैं। व्यावसायीकरण:  शिक्षा का बाजारीकरण हो गया है, जिससे गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। समान अवसर की कमी:  ग्रामीण और शहरी शिक्षा के बीच गहरी खाई है, जिससे समाज में असमानता बढ़ रही है। सार्वजनिक मूल्य और नैतिकता क...

क्या यह इंसानों की बस्ती है?

क्या यह इंसानों की बस्ती है?  ~ ANAND KISHOR MEHTA सुबह के साथ उम्मीद जगती है। हर मोहल्ला, हर गली, हर घर – एक नई शुरुआत की संभावना लेकर उठता है। लेकिन कुछ जगहों पर सुबह की यह संभावना शोर में दब जाती है। जैसे ही सूरज निकलता है, किसी के घर में गालियाँ गूंजती हैं, तो कहीं दरवाज़े पटके जाते हैं। मोहल्ला जैसे झगड़ों का अखाड़ा बन चुका हो – न किसी को सुनना है, न समझना है – सिर्फ बोलना है, चिल्लाना है, थोपना है। ऐसा लगता है मानो लोग अपनी-अपनी जिंदगी की हताशा, कुंठा और अधूरी इच्छाओं का बोझ एक-दूसरे पर फेंककर हल्का होना चाहते हैं। कोई अपनी बात न माने जाने पर खुद को चोट पहुँचा देता है – जैसे स्वयं से ही बदला ले रहा हो। कोई दूसरों की आवाज दबाकर खुद को सही सिद्ध करता है – मानो बहस जीतना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो। कोई चुप रहता है, पर भीतर ही भीतर घुटता है, अपनी चुप्पी से नफरत करने लगता है। और कोई, नशे में डूबकर खुद को ‘शांत’ करने की कोशिश करता है – लेकिन वह नशा केवल थोड़ी देर के लिए चीखों की आवाज धीमी करता है, हालात नहीं बदलता। क्या यही मानवता है? क्या यही सभ्यता है? क्या इस झगड़े...

कविता श्रृंखला: अनकहे एहसास: दिल की बात

कविता श्रृंखला:  अनकहे एहसास: दिल की बात  मैं दिया हूँ!  मेरी दुश्मनी तो सिर्फ अँधेरे से है, हवा तो बेवजह ही मेरे खिलाफ है। – गुलज़ार कविता: मैं दिया हूँ ~ आनंद किशोर मेहता मैं दिया हूँ... मुझे बस अंधेरे से शिकायत है, हवा से नहीं। वो तो बस चलती है… कभी मेरे खिलाफ, कभी मेरे साथ। मैं चुप हूँ, पर बुझा नहीं, क्योंकि मेरा काम जलना है। ताकि किसी राह में भटके हुए को रौशनी मिल सके। मुझे दिखावा नहीं आता, ना ही शोर मचाना। मैं जलता हूँ भीतर से — सच, प्रेम और सब्र के संग। हवा सोचती है, कि वो मुझे गिरा सकती है। पर उसे क्या पता — मैं हर बार राख से भी फिर से जल उठता हूँ। मैं दिया हूँ… नम्र हूँ, शांत हूँ, मगर कमजोर नहीं। मैं अंधेरे का दुश्मन हूँ, इसलिए उजाले का दोस्त बना हूँ। तू चाहे जितनी बार आज़मा ले, मैं फिर भी वही रहूँगा — धीरे-धीरे जलता, पर हर दिल को छूता। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. "दीया कभी अंधेरे से डरता नहीं,… वो तो उसी के बीच खुद को साबित करता है।" "हवा से शिकवा नहीं,… क्योंकि उसे नहीं पता — कि मेरी लौ मेरी श्रद...

ऊपर से सख्त, भीतर से विनम्र

ऊपर से सख्त, भीतर से विनम्र  ~ आनंद किशोर मेहता कई लोग ऐसे होते हैं जो बाहर से कठोर और अनुशासनप्रिय प्रतीत होते हैं, पर भीतर से अत्यंत संवेदनशील, कोमल और करुणामय होते हैं। यह कोई विरोधाभास नहीं, बल्कि एक संतुलित व्यक्तित्व की निशानी है। बाहरी सख्ती उनके अनुभवों की उपज होती है — जीवन में मिले धोखे, उपेक्षा या जिम्मेदारियों की गंभीरता ने उन्हें दृढ़ बनना सिखाया होता है। जबकि उनकी आंतरिक विनम्रता एक शुद्ध अंतःकरण और भावनात्मक समझदारी का परिचायक होती है। वे हर किसी को हानि पहुँचाने से बचते हैं, परंतु ज़रूरत पड़ने पर सच्चाई और अनुशासन के लिए अडिग रहते हैं। ऐसे लोग जीवन में मर्यादा, अनुशासन और प्रेम का संतुलन बनाए रखते हैं। वे न तो दिखावे के दयालु होते हैं, न ही क्रूर हृदय वाले। वास्तव में, यही संतुलन उन्हें समाज में एक सच्चे मार्गदर्शक और भरोसेमंद व्यक्तित्व बनाता है। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. दिल की गहराई ~ आनंद किशोर मेहता मैं बाहर से सख्त जरूर हूँ, पर दिल में इक रौशनी भरपूर हूँ। मेरे लफ्ज़ कभी तीखे लगते हैं, मगर हर बात में दुआ रखते हैं। मैं चुप रहता हूँ...

वो अनकहा जो रिश्तों को तोड़ देता है

वो अनकहा जो रिश्तों को तोड़ देता है  ~ आनंद किशोर मेहता रिश्ते कभी एक दिन में नहीं टूटते। ना ही कोई बड़ी घटना इसकी वजह होती है। यह तो छोटे-छोटे अनदेखे क्षणों की वो दरारें हैं, जब किसी ने सुना नहीं, किसी ने समझा नहीं, और किसी ने चाहकर भी कुछ कहा नहीं। हर बार जब हम अपनी भावनाएँ दबा जाते हैं, हर बार जब हम सामने वाले को 'समझ जाएगा' मान लेते हैं — हम अनजाने में एक ईंट खींच लेते हैं उस नींव से, जिस पर कभी विश्वास की दीवार खड़ी थी। हम सोचते हैं, "अभी नहीं तो बाद में कह दूँगा", पर वो 'बाद' कभी आता नहीं। और एक दिन, हम पाते हैं कि वो रिश्ता सिर्फ यादों में रह गया है — उससे जुड़ा इंसान अब हमारे पास नहीं। या अगर है भी... तो वैसा नहीं रहा, जैसा कभी हुआ करता था। ऐसे में हमें खुद से पूछना होगा — क्या हम सच में आगे बढ़े हैं? या दूसरों को पीछे छोड़ते हुए खुद को खो बैठे हैं? जीवन में सम्मान चाहिए, पर उस कीमत पर नहीं कि किसी को छोटा करके खुद बड़े दिखें। हमें हँसना है, मगर किसी की चुप्पी की कीमत पर नहीं। हमें उड़ना है, मगर किसी के सपनों को रौंदकर नहीं। रिश्ते सँजोने ...

बुद्धि और विवेक को निखारने के 9 संतुलित और सार्थक उपाय

बुद्धि और विवेक को निखारने के 9 संतुलित और सार्थक उपाय  ~ आनंद किशोर मेहता 1. पढ़ने की आदत को आनंदमय बनाएं पढ़ना केवल सूचनाएँ लेने के लिए नहीं, बल्कि सोचने और समझने की एक सुंदर प्रक्रिया है। जब हम भावपूर्वक और रुचि से पढ़ते हैं, तो न केवल जानकारी बढ़ती है, बल्कि मन की स्पष्टता और भाषा की सुंदरता भी निखरती है। 2. ऐसे लोगों का संग चुनें जो सोच को विस्तार दें हमेशा समान सोच वाले नहीं, बल्कि सकारात्मक और विवेकी लोगों के बीच समय बिताएं। उनकी बातें और दृष्टिकोण आपकी सोच में संतुलन और परिपक्वता ला सकते हैं। 3. सीखने को जीवन का स्वाभाविक हिस्सा बनाएं चाहे उम्र कोई भी हो, नई चीज़ें सीखने का उत्साह कभी कम न करें। रोज़मर्रा के जीवन में भी छोटे-छोटे अनुभवों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, बशर्ते दृष्टि जागरूक हो। 4. कल्पना को दिशा दें, सीमा नहीं कल्पना केवल उड़ान नहीं है, यह सोच की गहराई है। कल्पनाशक्ति का उपयोग करें समस्याओं के समाधान खोजने, नई संभावनाएँ देखने और भीतर की रचनात्मकता को जाग्रत करने के लिए। 5. आत्मचिंतन करें, लेकिन आलोचना नहीं जो सीखा है उस पर शांत होकर विचार करें — वह आ...

सोचने लायक बना दिया है…

  सोचने लायक बना दिया है…  ~ आनंद किशोर मेहता जब लोग मेरी कमियाँ गिनाने में व्यस्त होते हैं, तब मैं मुस्कुरा कर यह समझ जाता हूँ — मैंने उन्हें सोचने लायक कुछ तो दिया है। किसी को चुभी है मेरी बात, किसी को खटक गया मेरा बदलाव, और किसी को झुकना पड़ा अपने अहम के सामने। क्योंकि, जो कुछ भी हमें भीतर से हिला दे — वो साधारण नहीं होता। रिश्ते कभी कुदरती मौत नहीं मरते। इन्हें मारता है इंसान खुद — नफरत से, नजरअंदाज़ से, और कभी-कभी, सिर्फ एक गलतफहमी से। कभी-कभी सोचता हूँ — मुझे क्या हक है कि किसी को मतलबी कहूं? मैं खुद रब को सिर्फ मुसीबत में याद करता हूँ! तो फिर दूसरों के स्वार्थ पर क्यों उंगली उठाऊँ? हम जब किसी की सफलता को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वह हमारे भीतर ईर्ष्या बनकर जलती है। और जब उसे अपनाकर देखें — तो वही सफलता प्रेरणा बन जाती है। मैं अक्सर जिनके झूठ का मान रख लेता हूँ, वो सोचते हैं, उन्होंने मुझे बेवकूफ़ बना दिया। पर उन्हें यह कौन समझाए — मैंने रिश्ते की मर्यादा बचाई, ना कि अपनी मूर्खता दिखाई। कोई दवा नहीं है उन रोगों की, जो तरक्की देखकर जलने लगते ह...

THOUGHTS 18 MAY 2025

THOUGHTS:-   ना मुझे काना-फूसी भाती है, ना जी-हुजूरी रास आती है; मैं तो बस प्रेम का राही हूँ — जिसकी हर एक चाल, प्रेम ने सुलझाई है। — आनंद किशोर मेहता झूठ के सहारे बड़ी-बड़ी बातें की जा सकती हैं, लेकिन मानवता की ऊँचाई केवल सच से ही हासिल होती है। — आनंद किशोर मेहता मानवता कोई वेश नहीं, जिसे ज़रूरत के हिसाब से बदला जा सके — यह तो आत्मा की असली परछाई है। — आनंद किशोर मेहता जहाँ स्वार्थ बोलते हैं, वहाँ वास्तविकता खामोश हो जाती है — क्योंकि वह दिखावे की मोहताज नहीं होती। — आनंद किशोर मेहता रिश्ते बनते हैं शब्दों से, लेकिन टिकते हैं कर्तव्यों से। — आनंद किशोर मेहता जो पीठ पीछे भी वैसा ही रहे, वही सच्ची मानवता है — बाकी सब अभिनय है। — आनंद किशोर मेहता स्वयं का मूल्य न जानने वाला, दूसरों के मूल्य को क्या समझेगा? जो अपने ही अस्तित्व को न पहचान सका, वो भला औरों की अहमियत क्या जाने? — आनंद किशोर मेहता जिसने खुद की अहमियत को पहचान लिया, वही दूसरों की असल कदर करना जानता है – क्योंकि सम्मान देना, पहले स्वयं से शुरू होता है। — आनंद किशोर मेहता जो अपने ही मन की चालबाज़ियों, भ...

मीठा झूठ और कड़वा सच: रूह की एक कहानी

मीठा झूठ और कड़वा सच: रूह की एक कहानी  © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. कुछ लोग हर दिल अज़ीज़ होते हैं, क्योंकि वो सच नहीं बोलते— बल्कि मीठे झूठ से रिश्तों को सजाते हैं। हर किसी के चहेते बनते हैं, हर महफ़िल में मुस्कानें लुटाते हैं। और कुछ... जो रूह की बात करते हैं, जिनके लफ़्ज़ आईने से साफ़ होते हैं, वो हर हफ़्ते किसी अपने से दूर हो जाते हैं। कभी 'कड़वे' कहलाते हैं, तो कभी 'कठोर' या 'अहंकारी'... पर हकीकत ये है— जो झूठ से सजता है, वो जल्दी बिखर जाता है। और जो सच से बनता है, वो देर से जुड़ता है— मगर गहराई में उतर जाता है। सच की राह आसान नहीं, मगर यह वही रास्ता है जिस पर चलकर इंसान खुद से भी नहीं झिझकता। सूफ़ी कहते हैं— “सच वह इश्क़ है, जो दिल को जलाता है, मगर रूह को रोशन कर देता है।” तो चुनो वही शब्द जो प्रेम से लिपटे हों, सच कहें—पर सिर नहीं झुकाएँ। और झूठ ना कहें—बस चुप रह जाएँ। सूफ़ियाना सार: झूठ मीठा हो सकता है, पर सच मुकम्मल होता है। अगर बोलना ही है, तो सच को स्पर्श बनाकर कहो— जो लगे भी ना, मगर ...

कोई दवा नहीं है उसके रोगों की…~ जो जलता है तरक्की देखकर लोगों की!

कोई दवा नहीं है उसके रोगों की…  ~ जो जलता है तरक्की देखकर लोगों की!  ~ आनंद किशोर मेहता हर इंसान की यात्रा अलग होती है। कोई कठिनाइयों को चीरता हुआ आगे बढ़ता है, कोई अवसरों का सदुपयोग करके उन्नति करता है, तो कोई आत्मचिंतन और प्रयास से अपने जीवन को सँवारता है। लेकिन समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों की तरक्की देखकर प्रेरणा लेने के बजाय, भीतर ही भीतर जलने लगते हैं। यह जलन कोई सामान्य भावना नहीं होती — यह एक मानसिक रोग बन जाती है। और दुख की बात यह है कि इस रोग की कोई दवा नहीं होती , क्योंकि यह मन से उत्पन्न होती है और वहीं पलती रहती है। ईर्ष्या: आत्मविकास का सबसे बड़ा बाधक ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने प्रयास पर ध्यान नहीं देता। वह दूसरों की उन्नति को देखकर दुखी होता है, दूसरों को गिराने की सोचता है, और धीरे-धीरे अपनी ऊर्जा , शांति और आत्मबल खो देता है। जबकि तरक्की करने वाले लोग हर आलोचना को प्रेरणा बना लेते हैं और बिना किसी से मुकाबला किए अपनी राह चलते रहते हैं। सफलता पर नहीं, संघर्ष पर गौर कीजिए जो व्यक्ति सफल हुआ है, उसकी मेहनत और संघर्ष की अनदेखी...

जीवन में शांति चाहिए तो उनसे दूरी बना लो, जो सहयोग भूल जाते हैं मगर एहसान गिनाते रहते हैं।

जीवन में शांति चाहिए तो उनसे दूरी बना लो, जो सहयोग भूल जाते हैं मगर एहसान गिनाते रहते हैं।  ~ आनंद किशोर मेहता यह एक साधारण-सी लगने वाली पंक्ति, वास्तव में जीवन का गहन अनुभव है। कुछ लोग आपके संघर्ष में साथ नहीं देते, लेकिन जब उनका कोई छोटा-सा योगदान होता है, तो उसे जीवन भर याद दिलाते हैं। ऐसे लोग सहयोग नहीं करते, बल्कि अपने “एहसान” जताकर आपके आत्मसम्मान को धीरे-धीरे खत्म करते हैं। यह भावनात्मक रूप से थका देने वाला अनुभव होता है। आप हर पल खुद को उनके ऋण में बंधा हुआ महसूस करते हैं, भले ही आपने उनसे कहीं अधिक किया हो। इसलिए यह जरूरी है कि: ऐसे लोगों से विनम्र दूरी बनाई जाए। अपने आत्मसम्मान की रक्षा की जाए। उन संबंधों को संजोया जाए जो निःस्वार्थ, प्रेमपूर्ण और संतुलन देने वाले हों। शांति वहीं मिलती है, जहां रिश्तों में स्वतंत्रता, समझ और सच्चा सम्मान हो — न कि उपकार का बोझ। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. : शांति की चाह ~ आनंद किशोर मेहता जो कहते थे, "हम साथ हैं," आज वही हर बात में एहसान जताते हैं। भूल गए वो पल, जब टूटे थे हम, और उनका नाम लेकर मुस...

सेवा की रहमत: जब 'मैं' मिट गया

सेवा की रहमत: जब 'मैं' मिट गया । © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. कभी-कभी जीवन की राह में एक ऐसा मोड़ आता है, जहाँ कोई आवाज़ नहीं होती — पर भीतर एक गूंज उठती है। एक सोच जागती है… और उसी क्षण सब कुछ बदल जाता है। मैं उस क्षण की बात कर रहा हूँ, जब अहंकार की दीवारें खुद-ब-खुद ढहने लगती हैं, और “मैं” — जो अब तक हर सोच, हर भाव, हर कर्म का केंद्र था — धीरे-धीरे पिघलने लगता है। जब 'मैं' खो गया, तो कोई राह न रही, कोई मंज़िल न रही। पर वहीं से एक नई यात्रा शुरू हुई — रूह की यात्रा, जिसमें मौन बोलने लगा, और ख़ामोशी में सेवा का अर्थ समझ में आने लगा। सेवा तब तक बोझ लगती है, जब तक वह किसी पुण्य या फल की आशा से जुड़ी हो। पर जब ‘मैं’ मिटता है, तब सेवा एक रहमत बन जाती है — ऐसी रहमत जो आत्मा को हल्का करती है, और कर्म को इबादत में बदल देती है। मैंने जाना, सेवा तब सबसे पवित्र होती है, जब उसे करने वाला मौजूद ही न हो — केवल भाव बचे, समर्पण बचा, और रूह की ख़ामोशी बचे। अब न कोई नाम चाहता हूँ, न कोई पद, न कोई पहचान। बस एक सौगात चाहिए — कि किसी की आँख में...

जब कुछ नहीं रहा, तब मैं रह गया।

जब कुछ नहीं रहा, तब मैं रह गया।  (लघु लेख ~ आनंद किशोर मेहता) जीवन की यात्रा में एक समय ऐसा आता है जब सब कुछ हाथ से फिसलता-सा लगता है — अपने कहे जाने वाले रिश्ते, समाज में बनी पहचान, वर्षों से संजोए सपने, और आत्मसंतोष की झूठी धारणाएँ। उस क्षण भीतर एक शून्य-सा भर जाता है, और हम पूछ बैठते हैं: "अब क्या बचा?" परंतु इसी शून्य के भीतर एक मौन उत्तर उभरता है — "तू बचा है… तू अब भी है।" मैंने देखा — जो कुछ गया, वह मेरा नहीं था। जो मेरा था, वह कभी गया ही नहीं। वो तो भीतर ही था — शांत, सरल, और अपरिवर्तनीय। बंधनों के छूटने की पीड़ा, धीरे-धीरे एक वरदान बन गई। अब मैं किसी परिभाषा में नहीं समाता। ना किसी की स्वीकृति की आवश्यकता है, ना किसी भूमिका को निभाने की मजबूरी। मैं हूँ — बस यही मेरी सबसे गहरी पहचान है। अब कोई दौड़ नहीं, कोई साबित करने की होड़ नहीं। अब जो जीवन है, वह दिखावे का नहीं, बल्कि एक आंतरिक सत्यान्वेषण का जीवन है। जो गया, उसने रास्ता साफ किया — और जो शेष है, वो मैं हूँ… सच्चा, निर्विकार, और मुक्त। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए — सिवाय इस आत्मिक मौन में ...