भक्ति, कर्तव्य और सृष्टि का अंतिम लक्ष्य: परम आनंद की यात्रा
इस सृष्टि की रचना केवल जन्म और मृत्यु के चक्र को दोहराने के लिए नहीं हुई है। इसका अंतिम उद्देश्य हर जीव को जागरूक करना और उसे परम आनंद के स्रोत तक पहुँचाना है। हालांकि, यह यात्रा सरल और सीधी नहीं है। यह दो मार्गों के बीच संतुलन स्थापित करने की यात्रा है:
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जब भक्त बेफिक्र हो जाता है और ईश्वर चिंतित हो जाते हैं
सच्चा भक्त जब पूर्ण समर्पण कर लेता है, तो वह संसार की सभी चिंताओं से मुक्त हो जाता है। उसे यह विश्वास हो जाता है कि "मेरे जीवन की हर जिम्मेदारी परमसत्ता की है, मुझे कुछ करने की जरूरत नहीं।" यह विश्वास अच्छा है, लेकिन यदि यह भक्ति निष्क्रियता में बदल जाए, तो यह सृष्टि के नियमों के खिलाफ हो जाता है। परमसत्ता को तब चिंता होती है। जैसे माता-पिता अपने उस बच्चे के लिए चिंतित हो जाते हैं, जो हर चीज़ उनके भरोसे छोड़कर खुद कोई प्रयास नहीं करता, वैसे ही ईश्वर भी सोचते हैं, "यह भक्त तो पूरी तरह निश्चिंत हो गया है, लेकिन इसे अब कर्मयोग का बोध कराना होगा।"
इसी कारण, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को केवल भक्ति का मार्ग नहीं सिखाया, बल्कि उसे कर्मयोग की ओर प्रेरित किया। -
जब भक्त कर्तव्य की ओर बढ़ता है और ईश्वर निश्चिंत हो जाते हैं
जब भक्त को यह ज्ञान होता है कि भक्ति का अर्थ केवल ध्यान और प्रार्थना नहीं, बल्कि सृष्टि की सेवा भी है, तब वह निस्वार्थ कर्म में लग जाता है। यही वह क्षण होता है जब ईश्वर निश्चिंत हो जाते हैं। अब उन्हें अपने भक्त की चिंता नहीं करनी पड़ती, क्योंकि वह अपने सच्चे कर्तव्य को पहचान चुका होता है। अब वह केवल स्वयं के मोक्ष के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए कार्य करता है। यही वास्तविक भक्ति है—जहाँ प्रेम, सेवा और समर्पण एक हो जाते हैं। -
सृष्टि का अंतिम सत्य: परम आनंद तक पहुँचना
यह सृष्टि केवल अस्तित्व में रहने के लिए नहीं बनी है—यह जीव के विकास की यात्रा है। जब तक कोई व्यक्ति केवल अपनी इच्छाओं और चिंताओं में उलझा रहता है, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में बंधा रहता है। लेकिन जब उसे यह बोध होता है कि "मेरा जीवन केवल मेरे लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि के लिए है," तब उसकी चेतना जागृत हो जाती है।
परम आनंद की अवस्था केवल ध्यान और साधना से नहीं मिलती। यह तब प्राप्त होती है जब व्यक्ति निस्वार्थ प्रेम, सेवा और निष्काम कर्म को अपने जीवन का आधार बना लेता है। यही सृष्टि का अंतिम सत्य है—जीवों को जागरूक करना, उन्हें आत्म-साक्षात्कार कराना और उन्हें परम आनंद के स्रोत तक पहुँचाना। -
सच्चे संतुलन की पहचान
न तो केवल भक्ति ही पर्याप्त है:
जो केवल ईश्वर के भरोसे बैठा है और स्वयं कुछ नहीं कर रहा, वह अपनी आत्मा की शक्ति को व्यर्थ कर रहा है।
न तो केवल कर्म ही पर्याप्त है:
जो बिना प्रेम और भक्ति के कर्म कर रहा है, वह केवल एक मशीन की तरह कार्य कर रहा है और अंततः थक जाएगा।
संतुलन ही अंतिम सत्य है:
सृष्टि तभी सही दिशा में आगे बढ़ेगी जब भक्ति और कर्म का पूर्ण संतुलन होगा।
- निष्कर्ष: जागृति ही मोक्ष है
इस सृष्टि में न कोई व्यर्थ है, न कोई पराया है। हर जीव अपनी दिव्य यात्रा पर है, और उसका अंतिम गंतव्य केवल एक ही है—परम आनंद। जब हम इस सत्य को पूरी तरह से समझ लेते हैं, तो हम न केवल अपने आत्मिक उत्थान की ओर अग्रसर होते हैं, बल्कि हम अन्य जीवों के उद्धार का माध्यम भी बनते हैं। यही सृष्टि की योजना है—हर जीव को धीरे-धीरे उसके दिव्य स्वरूप तक पहुँचाना।
निष्कर्ष:
सिर्फ भक्ति या सिर्फ कर्म से नहीं, बल्कि जब व्यक्ति प्रेम, सेवा और समर्पण के संतुलन में जीवन जीता है, तो वह इस सृष्टि के असली उद्देश्य को पूरा करता है। यही सच्चा मोक्ष है, और यही जागृति ही मोक्ष का मार्ग है।
हमारा जीवन केवल स्वयं के लिए नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए है, तभी हमारी चेतना जागृत होती है। यही है सृष्टि का अंतिम उद्देश्य—सभी जीवों को परम आनंद तक पहुँचाना।
लेखक आनन्द किशोर मेहता
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