जहाँ प्रेम है, वहाँ कुछ और नहीं
- आनंद किशोर मेहता
INTRODUCTION
"प्रेम केवल एक भावना नहीं, यह चेतना की वह दिव्य ऊर्जा है, जो हर बंधन को तोड़ती है, हर सीमा से परे जाती है और आत्मा को मुक्त करती है। जहाँ प्रेम है, वहाँ अहंकार नहीं, स्वार्थ नहीं—बस अनंत प्रकाश है।"
प्रेम—एक ऐसा शब्द, जो सुनते ही हृदय में एक मधुर स्पंदन उत्पन्न करता है। लेकिन क्या प्रेम केवल आकर्षण, लगाव या संबंधों तक सीमित है? नहीं, प्रेम इससे कहीं अधिक गहरा, शक्तिशाली और अनंत है। यह मात्र एक अनुभूति नहीं, बल्कि एक ऊर्जा शक्ति है, जो हमें स्वार्थ, मोह और सांसारिक सीमाओं से मुक्त कर वास्तविक स्वतंत्रता की ओर ले जाती है।
जब प्रेम अपने शुद्धतम स्वरूप में होता है, तब वहाँ कोई अपेक्षा नहीं, कोई स्वामित्व नहीं—बस प्रेम ही प्रेम होता है। जब प्रेम सीमाओं को लांघता है, तब यह केवल किसी व्यक्ति से नहीं, बल्कि संपूर्ण अस्तित्व से एक हो जाता है। तब प्रेम केवल एक अनुभूति नहीं, बल्कि स्वयं चेतना का स्वरूप बन जाता है।
प्रेम: स्वतंत्रता है, बंधन नहीं
खलील जिब्रान कहते हैं—
"यदि तुम प्रेम करते हो, तो उसे जाने दो। यदि वह तुम्हारा है, तो लौट आएगा, यदि नहीं, तो वह कभी तुम्हारा था ही नहीं।"
प्रेम का स्वभाव मुक्ति है, न कि बंधन। यदि प्रेम किसी को बाँधता है, नियंत्रित करता है, तो वह प्रेम नहीं, बल्कि स्वार्थ है।
ओशो प्रेम को अहंकार से परे जाने का मार्ग मानते हैं। वे कहते हैं—
"सच्चा प्रेम वही है, जो पूर्ण स्वतंत्रता दे और बदले में कुछ भी पाने की इच्छा न रखे।"
यदि प्रेम को स्वतंत्र रूप से बहने दिया जाए, तो वह जीवन को संपूर्णता तक ले जाता है। यह वह दीपक है, जो अंधकार को दूर करता है और आत्मा को प्रकाशित करता है।
प्रेम: आत्मा की अनंत यात्रा
रूमी कहते हैं—
"तुम्हारा कार्य प्रेम को खोजना नहीं है, बल्कि अपने भीतर की उन बाधाओं को मिटाना है, जो प्रेम को रोकती हैं।"
प्रेम हमारे भीतर ही है, लेकिन हम उसे स्वार्थ, भय और अहंकार से ढँक देते हैं। जब हम इन बाधाओं को हटाते हैं, तो प्रेम स्वतः प्रकट हो जाता है।
रवींद्रनाथ टैगोर प्रेम को केवल किसी व्यक्ति से जोड़कर नहीं देखते, बल्कि इसे संपूर्ण प्रकृति, संगीत, कला और ब्रह्मांड में महसूस करते हैं। वे कहते हैं—
"प्रेम आत्मा की वह उड़ान है, जो हमें संपूर्ण सृष्टि के साथ एक कर देती है।"
प्रेम: त्याग और समर्पण की शक्ति
एरिच फ्रॉम प्रेम को एक कला मानते हैं, जिसे सीखना और अभ्यास करना पड़ता है। वे कहते हैं—
"प्रेम केवल कुछ पाने का नाम नहीं, बल्कि कुछ देने की क्षमता का नाम है।"
जब प्रेम लेने का नहीं, बल्कि देने का माध्यम बन जाता है, तभी वह अपने वास्तविक रूप में होता है। त्याग और समर्पण प्रेम के दो आधार स्तंभ हैं।
जिद्दू कृष्णमूर्ति कहते हैं—
"जहाँ स्वार्थ और अहंकार है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता।"
प्रेम में समर्पण का अर्थ यह नहीं कि हम स्वयं को खो दें, बल्कि यह कि हम अपने अहंकार से मुक्त हो जाएँ।
प्रेम: ईश्वर से मिलन का मार्ग
सूफी संतों का मानना है कि प्रेम केवल सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी होता है। मीरा, कबीर, तुलसीदास जैसे संतों का प्रेम ईश्वर से मिलन की यात्रा था।
रूमी कहते हैं—
"जब मैं प्रेम में डूबा, तो मैंने खुद को खो दिया, और जब खुद को खो दिया, तभी खुद को पाया।"
प्रेम का यह स्वरूप हमें हमारी सीमाओं से परे जाने की शक्ति देता है। जब हम किसी से निःस्वार्थ प्रेम करते हैं, तो हम अपने अहंकार को मिटा देते हैं और केवल प्रेम बन जाते हैं।
प्रेम का व्यावहारिक स्वरूप
प्रेम केवल एक भावना नहीं, बल्कि एक अभ्यास है। इसे हम अपने जीवन में इन छोटे-छोटे तरीकों से अपना सकते हैं—
- हर व्यक्ति को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार करें।
- अपनी अपेक्षाओं को कम करें और देने पर अधिक ध्यान दें।
- दूसरों की स्वतंत्रता और खुशियों को अपने से अधिक महत्व दें।
- अपने अहंकार को प्रेम की ऊर्जा में विलीन कर दें।
प्रेम तब ही वास्तविक होता है, जब वह शुद्ध, निःस्वार्थ और स्वतंत्र होता है।
जहाँ प्रेम है, वहाँ कुछ और नहीं
जब प्रेम अपनी शुद्धतम अवस्था में होता है, तब वहाँ केवल प्रेम ही बचता है—न कोई भय, न कोई मोह, न कोई स्वार्थ। यह वह स्थिति है, जहाँ मन शांत हो जाता है, आत्मा हल्की हो जाती है, और व्यक्ति संसार की छोटी-छोटी बातों से परे उठ जाता है।
प्रेम: अंतिम सत्य
मेरे विचार में, प्रेम केवल एक भावना नहीं, बल्कि एक ऊर्जा शक्ति है, जो हमें हर प्रकार के स्वार्थ, मोह और सांसारिक सीमाओं से मुक्त कर सकती है। यह वह शक्ति है, जहाँ केवल प्रेम ही प्रेम रह जाता है, और कुछ नहीं।
जब प्रेम को सीमाओं से परे देखा जाता है, तो यह केवल किसी व्यक्ति या वस्तु से जुड़ाव नहीं रहता, बल्कि संपूर्ण अस्तित्व से मिलन बन जाता है। यह वह अवस्था है, जहाँ व्यक्ति स्वयं को भी भूल जाता है और केवल प्रेम के रूप में जीने लगता है।
"यदि जीवन का अंतिम सत्य प्रेम है, तो प्रेम ही हमारी साधना होनी चाहिए, प्रेम ही हमारा धर्म, प्रेम ही हमारी मुक्ति। प्रेम को केवल शब्दों या भावनाओं तक सीमित न करें, इसे अपनी आत्मा में जागृत करें, इसे अपने अस्तित्व में प्रवाहित करें। जब प्रेम हमारे भीतर पूरी तरह समाहित हो जाता है, तब हम स्वयं प्रेम बन जाते हैं—स्वतंत्र, अनंत, और दिव्य।"
"प्रेम ही वास्तविक चेतना है, प्रेम ही सच्चा ज्ञान है, और प्रेम ही वह अनंत सत्य है, जहाँ हर प्रश्न मौन में विलीन हो जाता है।"
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