क्या वह दिन भी आएगा, जब पूरी दुनिया सत्य, प्रेम और करुणा को एकसाथ स्वीकार करेगी?
संपूर्ण विश्व में सदियों से सत्य, प्रेम और नैतिकता का संदेश गूंजता आ रहा है। हर युग में महापुरुषों ने मानवता को एकता, शांति और नैतिक मूल्यों की राह दिखाने का प्रयास किया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मोहम्मद, गुरु नानक और अन्य संतों ने प्रेम और करुणा का संदेश दिया, लेकिन फिर भी दुनिया आज भी विभाजित है।
आज विज्ञान और तकनीक ने मनुष्य को अद्भुत ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। ज्ञान और सूचनाओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन क्या हम मानसिक और आत्मिक रूप से भी उसी अनुपात में विकसित हुए हैं?
क्या कोई ऐसा मार्गदर्शक आ सकता है, जिसकी बातों को पूरी दुनिया सहर्ष स्वीकार करे और जिसके नेतृत्व में समूची मानवता एक हो सके?
आज की दुनिया: विकास और विखंडन
आज का युग भौतिक समृद्धि का युग है। विज्ञान ने सीमाएँ तोड़ दी हैं, इंटरनेट ने पूरी दुनिया को जोड़ दिया है, और मनुष्य चाँद और मंगल तक पहुँच चुका है। लेकिन इसके बावजूद दुनिया में संघर्ष, धार्मिक कट्टरता, राजनीतिक स्वार्थ, हिंसा और भेदभाव भी उतनी ही तीव्रता से बढ़ रहे हैं।
- यदि ज्ञान का प्रकाश फैला है, तो फिर अज्ञानता क्यों बनी हुई है?
- यदि विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है, तो फिर प्रेम, करुणा और एकता की भावना कमजोर क्यों पड़ती जा रही है?
दुनिया भले ही तकनीकी रूप से जुड़ गई हो, लेकिन विचारों में हम पहले से अधिक बँट चुके हैं।
हम एकमत क्यों नहीं हो सकते?
1. व्यक्तिगत पहचान और सीमाएँ
हर व्यक्ति अपनी अलग संस्कृति, परंपरा और विचारधारा से जुड़ा हुआ है। यह पहचान हमारी शक्ति भी बन सकती है, लेकिन जब यह संकीर्ण सोच में बदल जाती है, तो यह एकता के मार्ग में बाधा बन जाती है।
2. अहंकार और स्वार्थ
अहंकार, स्वार्थ और सत्ता की लालसा हमें सच्चे मार्गदर्शन को अपनाने से रोकती है। सत्य को स्वीकार करने के लिए खुले मन की आवश्यकता होती है, लेकिन हम अक्सर अपनी मान्यताओं को ही अंतिम सत्य मान लेते हैं।
3. सत्य को टुकड़ों में बाँटने की प्रवृत्ति
हम सत्य को सम्पूर्णता में देखने के बजाय उसे अपने-अपने दृष्टिकोण से देखते हैं। इससे सत्य विकृत हो जाता है और हम केवल वही सुनना पसंद करते हैं, जो हमारे विचारों से मेल खाता हो।
4. संकीर्ण प्राथमिकताएँ
व्यक्तिगत, धार्मिक और राजनीतिक प्राथमिकताएँ अक्सर वैश्विक एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनती हैं। जब तक हम व्यक्तिगत स्वार्थों को ऊपर रखेंगे, तब तक संपूर्ण समाज का कल्याण संभव नहीं होगा।
5. मतभेद और विभाजन
हमारे समाज में धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मतभेद इतने गहरे हैं कि हम सच्चे मार्ग को अपनाने से डरते हैं। हमें यह चिंता होती है कि कहीं यह हमारी परंपराओं या विश्वासों के खिलाफ न हो।
क्या समाधान संभव है?
इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट रूप से "हाँ" है। लेकिन यह समाधान किसी एक व्यक्ति या किसी बाहरी शक्ति पर निर्भर नहीं है। संपूर्ण समाज को मिलकर इस दिशा में प्रयास करना होगा, और यह परिवर्तन भीतर से शुरू होगा।
परिवर्तन की दिशा में पाँच महत्वपूर्ण कदम:
1. आत्मचेतना का विकास
संपूर्ण परिवर्तन की पहली और सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि हर व्यक्ति अपने भीतर झाँककर स्वयं को जाने। जब तक हम अपनी सीमित सोच, पूर्वाग्रह और संकीर्ण धारणाओं से मुक्त नहीं होंगे, तब तक किसी भी सच्चे मार्गदर्शन को स्वीकार नहीं कर सकते।
2. विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय
आज का युग तर्क और प्रमाण का युग है। लेकिन केवल विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, जब तक कि वह मानवीय चेतना और आध्यात्मिक मूल्यों से न जुड़ा हो।
- विज्ञान हमें तर्क और सत्य की खोज सिखाता है।
- अध्यात्म हमें उस सत्य को आत्मसात करने की शक्ति देता है।
जब ये दोनों मिलकर आगे बढ़ेंगे, तो संपूर्ण मानवता एक नई दिशा की ओर बढ़ेगी।
3. सार्वभौमिक नैतिकता की स्थापना
जब तक संपूर्ण विश्व मानवता को ही अपना धर्म नहीं मानता, तब तक कोई भी विचारधारा सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं की जा सकती।
- हमें ऐसे नैतिक मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता है जो संकीर्णताओं से परे हों।
- जो केवल एक धर्म, संस्कृति या परंपरा तक सीमित न हों, बल्कि संपूर्ण जीवमात्र के कल्याण के लिए हों।
- ऐसी नैतिकता, जो सभी के लिए समान रूप से उपयोगी हो और प्रेम, करुणा और सेवा पर आधारित हो।
4. अहंकार और संकीर्णता का त्याग
अगर हम अपने अहंकार और पूर्वाग्रहों को छोड़ दें, तो सत्य को स्वीकार करना आसान हो जाएगा। जब तक हम केवल अपनी मान्यताओं को सही मानते रहेंगे और दूसरों की बातों को अस्वीकार करते रहेंगे, तब तक सच्ची एकता संभव नहीं होगी।
5. वैश्विक दृष्टिकोण अपनाना
आज दुनिया अनेक खंडों में बँटी हुई है—धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और राजनीतिक मतभेदों के कारण। यदि हम वास्तव में एकजुट होना चाहते हैं, तो हमें वैश्विक दृष्टिकोण अपनाना होगा।
- हमें यह समझना होगा कि हम सब एक ही मानवता के अंग हैं।
- हमारी समस्याओं का समाधान केवल आपसी सहयोग और समझदारी से ही संभव है।
क्या कोई दिव्य पुरुष आएगा?
लेकिन उनकी शिक्षाओं को संकीर्णता में बाँध दिया गया, और उनके विचारों को उनके अनुयायियों ने ही सीमित कर दिया।
क्या वह दिन आएगा?
हाँ, वह दिन आएगा, लेकिन इसके लिए हमें स्वयं आगे आना होगा।
- जब हर व्यक्ति अपने भीतर बदलाव लाने के लिए तैयार होगा।
- जब सत्य को सीमाओं में बाँटने की प्रवृत्ति समाप्त होगी।
- जब मानवता को ही सबसे बड़ा धर्म माना जाएगा।
- जब हम अपनी संकीर्ण सोच को छोड़कर, एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाएँगे।
✍️ लेखक: आनन्द किशोर मेहता
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