बचपन की तलाश: घर से स्कूल तक
~ अनुभव, संवेदना और शिक्षा जगत का मौन प्रश्न
प्रस्तावना
कभी-कभी जब बच्चों को देखकर उनके हावभाव और चुप्पी को समझा जाता है, तो एक प्रश्न बार-बार दिल को छू जाता है: "जो ये बच्चे शिक्षक से प्राप्त करते हैं, वो उनके पेरेंट्स क्यों नहीं दे पाते?" क्या एक शिक्षक, एक पिता से अधिक संवेदनशील हो सकता है? क्या एक बाहरी व्यक्ति, उस अंतरंगता और स्नेह को दे सकता है, जो माता-पिता का अधिकार माना जाता है?
यह प्रश्न केवल किसी एक व्यक्ति का नहीं है, यह हर उस संवेदनशील मन का है जो बच्चों को जीने की प्रेरणा देता है।
"बच्चा वही नहीं होता जो बोलता है, वह होता है जो चुप रहकर सब सहता है। उसे समझने के लिए शब्द नहीं, संवेदना चाहिए।"
1. जिम्मेदारी:
माता-पिता अक्सर बच्चे के पालन-पोषण को एक कर्तव्य की तरह निभाते हैं, जबकि शिक्षक—विशेषकर जो सेवा-भाव से जुड़े होते हैं—उसे समर्पण की तरह जीते हैं।
जहाँ एक ओर कुछ पेरेंट्स अपने बच्चे से अधिक उसकी पढ़ाई या "परफॉर्मेंस" पर ध्यान देते हैं, वहीं एक संवेदनशील शिक्षक बच्चे की भीतर की पीड़ा, मौन की पुकार और मुस्कान की तलाश करता है।
"हर बच्चा पढ़ाई में पीछे नहीं होता, कुछ तो बस उस स्नेह की तलाश में होते हैं जो उन्हें घर में नहीं मिला।"
2. समय की कमी
आज का पारिवारिक ढांचा तेजी से बदल रहा है। माता-पिता व्यस्त हैं—अपने करियर, गृहस्थी और सामाजिक अपेक्षाओं में।
बच्चों के लिए उनका समय कम हो गया है, और भावनात्मक उपलब्धता तो और भी कम।
वहीं, शिक्षक यदि मन से जुड़ा हो, तो वह हर बच्चे की आँखों में वह असमाप्त प्रश्न पढ़ सकता है, जिसे बच्चा घर पर बोल नहीं पाता।
3. सुनना और समझना
बच्चों को अक्सर कोई ऐसा चाहिए होता है जो उन्हें टोकने नहीं, सिर्फ सुनने आए।
घर में उन्हें जल्दीबाज़ी, आदेश या तिरस्कार मिलता है। लेकिन जब वही बच्चा स्कूल में शिक्षक की गोदी में सिर रखकर चुपचाप बैठता है, तो वह बोलता नहीं—बस विश्वास से भरता है।
"जब कोई बच्चा चुपचाप पास आकर सिर झुका ले — तो समझो उसे डांट नहीं, अपनापन चाहिए।"
उसे विश्वास होता है कि "यहाँ मुझे सुना जाएगा, बिना जज किए, बिना तुलना किए।"
4. अनुशासन
अभिभावक कई बार अनुशासन के नाम पर डर पैदा करते हैं।
लेकिन एक शिक्षक यदि अपने हृदय की रोशनी से काम ले, तो वह बिना डांटे भी बच्चे के व्यवहार में परिवर्तन ला सकता है।
क्योंकि डर से नहीं, प्रेम से उत्पन्न बदलाव ही स्थायी होता है।
5. वातावरण का असर
कई बच्चों के घरों में झगड़े, अशिक्षा, उपेक्षा या नशे की आदतों का माहौल होता है।
ऐसे में वे स्कूल को शरणस्थली मान लेते हैं। एक शिक्षक जो उन्हें अपनाता है, उन्हें एक सुरक्षित स्थान देता है, वही उनका सच्चा मार्गदर्शक और सहारा बन जाता है।
"बच्चे नज़रों से नहीं, महसूस करने से समझे जाते हैं। और जो उन्हें महसूस कर ले, वही उनके दिल में बस जाता है।"
6. रिश्ता – न अपेक्षा, न अधिकार
माता-पिता के रिश्ते में स्वाभाविक अपेक्षाएँ होती हैं – "बेटा नाम कमाए", "अच्छे अंक लाए", "हमारी बात माने"।
लेकिन शिक्षक के पास कोई अधिकार नहीं होता।
वह सिर्फ प्रेम, अनुभव और दयालुता से जुड़ता है—इसलिए उसका प्रभाव भी गहरा होता है।
"जहाँ अपेक्षा खत्म होती है, वहीं से सच्चा प्रेम शुरू होता है — और यही शिक्षक से बच्चों का रिश्ता बनाता है।"
"बच्चे कभी गलत नहीं होते, बस वे उस दुनिया में रास्ता ढूँढ रहे होते हैं जहाँ उन्हें समझने वाला कोई हो।"
समापन
इस लेख का उद्देश्य माता-पिता की आलोचना करना नहीं, बल्कि उनकी चेतना को स्पर्श करना है।
यदि वे चाहें, तो वे भी बच्चों के लिए वह स्नेह, वह दिशा और वह शक्ति बन सकते हैं—जो आज वे बाहर खोज रहे हैं।
बच्चों को केवल कपड़े, खाना और फीस नहीं चाहिए।
उन्हें चाहिए – समय, स्पर्श, विश्वास और वह नज़र, जो उन्हें बिना बोले पढ़ सके।
एक अंतिम प्रार्थना
हर माता-पिता में वह क्षमता है, जो उन्हें अपने बच्चों का सच्चा मार्गदर्शक बना सकती है—बस उन्हें थोड़ा ठहरना, थोड़ा सुनना और थोड़ा बदलना होगा।
शिक्षा का भविष्य घर और स्कूल दोनों के सच्चे सहयोग से ही सँवर सकता है।
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