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प्रेम से पुकारा… ज़ेब्रा ने दी सलामी

प्रेम से पुकारा… ज़ेब्रा ने दी सलामी

(एक सच्ची घटना जो दिल को छू गई) 

लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता

कभी-कभी जीवन के छोटे-छोटे क्षण ही सबसे बड़ी भावनाएँ जगा देते हैं।
हाल ही में पटना के चिड़ियाघर की एक यात्रा ने मुझे और मेरे परिवार को कुछ ऐसा महसूस कराया, जिसे शब्दों में बाँधना आसान नहीं। ज़ेब्रा… हाँ, वही सीधी धारियों वाला पशु — वो हमारे दिल में कुछ छोड़ गया।

एक शांत, हरियाली से घिरे मैदान के उस पार, वह ज़ेब्रा एक पेड़ की ओट में बिल्कुल मौन बैठा था। मैंने कई बार उसे पुकारा, आवाज़ लगाई… पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। फिर मुझे लगा कि अगर दिल से पुकारा जाए — तो शायद ये मौन भी जवाब दे दे।

“प्रेम से पुकारो…
शायद वो जिसे तुमने खोया समझा,
पास आ जाए।”

और ऐसा ही हुआ। जब दिल की सच्चाई से उसे पुकारा, तो वह दौड़ता हुआ मेरी ओर आया… और आकर एक पल के लिए ठहर गया। फिर उसने गर्दन उठाकर बिल्कुल वैसे खड़ा होकर पॉज़ (Salute) किया — जैसे मानो कोई सैनिक श्रद्धा से अभिवादन कर रहा हो।

यह क्षण मात्र एक दृश्य नहीं था —
यह एक जवाब था… उस प्रेम का, जो शब्दों से नहीं, हृदय से निकला था।


Thoughts 

  • “प्रकृति शांत है, लेकिन वह उन दिलों की पुकार सुनती है, जो सच्चे होते हैं।”
  • “हर जीव प्रेम का भूखा है — और प्रेम, मौन को भी बोलना सिखा देता है।”
  • “दूरी शब्दों से नहीं मिटती… वो सच्चे भावों से पिघलती है।”
  • “पेड़ के पीछे छिपा ज़ेब्रा… और सामने खड़ा प्रेम।”

 वीडियो को देखने के लिए यहाँ क्लिक करें:

https://youtu.be/XqfGoqcwZTA?feature=shared

कविता:

पशु भी जागे प्रेम की ध्वनि से…


~ आनंद किशोर मेहता

जब पशु भी सुन ले कोई पुकार —
सच्चे हृदय से निकली मौन सी आवाज़,
तो उसकी आंखों में चमक उठती है
कोई उजली सुबह… कोई परम चेतन की आभा।

थम जाता है वह,
न भाषा जानता है, न ग्रंथों की बात,
फिर भी उसकी चेतना
पहचान लेती है प्रेम की अदृश्य सौगात।

वह कांप उठता है,
संवेदना की मीठी लहरों में भीगकर,
जैसे किसी अदृश्य करुणा ने
छू लिया हो उसकी आत्मा के स्वर।

और वहीं —
इंसान!
जो बना है बुद्धि, तर्क और विज्ञान से,
वह सोया है…
खुली आंखों से भी, भीतर अंधकार पाले।

उसके कान उलझे हैं कोलाहल में,
पर दिल सूना है मौन की पुकार से।
वह खोजता है उत्तर बाहर —
जबकि प्रश्न भीतर
चुपचाप रोते हैं… टूटते हैं… बिखरते हैं।

क्या यह क्षण नहीं कि भीतर कोई दीप जले?
क्या यह समय नहीं कि मौन बोले —
"जागो!" — जीवन की पुकार सुनो।

पशु भी जागे प्रेम की ध्वनि से,
और तू, हे मानव, अब भी सोया है?
कब उठेगा तू?
कब कहेगा तेरा मौन —
"मैं अब जाग चुका हूँ…"

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.



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