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भीतर देखो, दुनिया बदल जाएगी।

1. भीतर का सच: बुराई कहीं और नहीं, भीतर है।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.

कभी-कभी जीवन हमें उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ हम दुनिया को कोसते हैं, हालात को दोष देते हैं, और दूसरों को अपनी तकलीफ़ों का कारण मान लेते हैं। हम सोचते हैं कि सारी बुराई इस दुनिया में फैली है — लोग स्वार्थी हैं, समाज गलत है, व्यवस्था दूषित है। लेकिन क्या हमने कभी आईने के सामने खड़े होकर खुद की आंखों में झांकने की कोशिश की है?

एक युवक रोज़ दुनिया की आलोचना करता, जीवन से असंतुष्ट रहता। एक दिन उसने एक आईना खरीदा — सुंदर, चमकदार और बेहद स्पष्ट। जैसे ही वह आईने के सामने खड़ा हुआ, उसे अपने चेहरे पर एक गहरी कालिमा दिखाई दी। घबराया हुआ वह पीछे हट गया, मगर देखा — उसका असली चेहरा तो साफ था। फिर आईने में काला चेहरा क्यों?

कई बार आईना सिर्फ चेहरा नहीं दिखाता, अंतर्मन का प्रतिबिंब भी प्रस्तुत करता है। यह घटना उस युवक के लिए आत्मबोध की शुरुआत थी। उसने समझा — “जिस बुराई को मैं दुनिया में ढूंढ रहा था, उसका बीज तो मेरे भीतर ही था।”

संत कबीर की वाणी गूंजती है:

"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।"

जब हम दूसरों की कमियों पर नज़र गड़ाए रहते हैं, तो अपने भीतर के अंधकार को नजरअंदाज़ कर देते हैं। लेकिन जैसे ही हम आत्मनिरीक्षण करते हैं — खुद की सोच, व्यवहार, और दृष्टिकोण की जांच करते हैं — तब हमें वह ‘काला चेहरा’ दिखता है जिसे दुनिया नहीं, हमने खुद अपने भीतर जन्म दिया है।

आत्मचिंतन एक साधना है। यह कोई पल भर का कार्य नहीं, बल्कि निरंतर अभ्यास है — अपने भीतर के दर्पण को साफ करना, अपने दोषों को स्वीकार करना, और उन्हें सुधरने का साहस रखना।

हमारी दुनिया उतनी ही सुंदर या कुरूप होती है, जितना हमारा अपना दृष्टिकोण।
बाहर की बुराई को मिटाने से पहले, भीतर की सच्चाई को देखना ज़रूरी है।


2. यह कबीरदास जी का अत्यंत गूढ़ और प्रतीकात्मक दोहा है: 





चाकी चाकी सब कहे, कीली कहे ना कोय।
जो कीली से लाग रहे, वाको बाल ना बांका होय।

शब्दार्थ:

  • चाकी – पिसाई करने वाली चक्की (upper and lower grinding stones)
  • कीली – चक्की का वह केंद्र बिंदु (pivot pin) जो स्थिर होता है
  • लाग रहे – जुड़ा रहना
  • बाल ना बांका होय – कुछ भी हानि न हो, एक बाल भी नहीं टेढ़ा हो

भावार्थ (Meaning):

संत कबीर कहते हैं कि संसार रूपी चक्की में सभी पिस रहे हैं — दुख, मोह, माया, अहंकार आदि में। सभी चक्की (चाकी) की बातें करते हैं, यानी इस दुनिया की पीड़ा की। लेकिन कोई भी "कीली" की बात नहीं करता — वह केन्द्र बिंदु जो स्थिर रहता है, जो चक्की के बीच में रहते हुए भी नहीं पिसता।

जो व्यक्ति इस "कीली" की तरह ईश्वर, आत्मा या सत्य से जुड़ा रहता है — मूल बिंदु पर टिके रहता है — वह संसार के घर्षण में भी सुरक्षित रहता है, उसे कोई भी हानि नहीं होती।


आज के युग में इसका अर्थ:

इस तेज़ रफ्तार, तनावपूर्ण और भौतिकता से भरे युग में हर व्यक्ति जीवन की चक्की में पिस रहा है — इच्छाओं, अपेक्षाओं, प्रतिस्पर्धा और दुःखों में। पर जो व्यक्ति अपने भीतर के सत्य से, आध्यात्मिक मूल से जुड़ा रहता है — जैसे ध्यान, सत्संग, आत्मचिंतन — वह संसार में रहते हुए भी भीतर से शांत, सुरक्षित और संतुलित रहता है।


संक्षिप्त संदेश:

"दुनिया की चक्की सबको पीसती है, लेकिन जो भीतर के सत्य से जुड़ा रहता है, वह अडोल और अछूता बना रहता है।"


3. लाली की खोज: जब साधक स्वयं रंग जाता है।

~ आनंद किशोर मेहता

"लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।"
— संत कबीर

संत कबीर का यह दोहा केवल शब्दों का मेल नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभूति का वह गहन संदेश है, जो जीवन को भीतर से झकझोर देता है। यह वह क्षण है जब साधक, ईश्वर की अनुभूति में इतना लीन हो जाता है कि उसका ‘मैं’ मिटने लगता है, और वह उसी प्रेम, उसी भक्ति, उसी "लाली" में रंग जाता है जिसे वह खोजने निकला था।

लाली क्या है?

यह कोई साधारण रंग नहीं, यह है—प्रेम, चेतना, भक्ति और दिव्यता की पूर्णता का प्रतीक। यहाँ "लाल" ईश्वर का प्रतीक है, और "लाली" उसका प्रेम। संत कबीर जब कहते हैं कि "लाली देखन मैं गई," तो यह उनकी ईश्वर की खोज की शुरुआत है। पर जब वे कहते हैं "मैं भी हो गई लाल," तो यह उनकी आत्मा के पूर्ण रूप से प्रेम में रंग जाने की घोषणा है।

आत्मिक यात्रा की सच्चाई

भक्ति की यात्रा में लक्ष्य कहीं बाहर नहीं होता।
ईश्वर कहीं दूर नहीं होता।
वह तो हमारे भीतर ही होता है—बस धूल जमी होती है दृष्टि पर, भ्रम होता है पहचान में। जैसे ही साधक सच्चे मन से खोजने निकलता है, वह उस दिव्यता को स्वयं में महसूस करने लगता है। धीरे-धीरे उसके मन, वचन, कर्म सब उसी ‘लाली’ में रंगने लगते हैं।

"भक्ति लक्ष्य को नहीं, साधक को बदल देती है।"

यह वाक्य कबीर के दोहे का सार है। जब हम प्रभु की ओर कदम बढ़ाते हैं, तो ईश्वर तक पहुँचने से पहले हम अपने भीतर के अहंकार, क्रोध, वासनाएँ और अज्ञान को पीछे छोड़ देते हैं। यह परिवर्तन ही सच्चा मिलन है—जहाँ साधक, स्वयं साध्य बन जाता है।

लाली का अनुभव

जब किसी को सच्चे प्रेम की झलक मिलती है—चाहे वह किसी गुरु के नेत्रों में हो, किसी माँ के आशीर्वाद में, या किसी बच्चे की निश्छल मुस्कान में—तो वह बाहर से देखने नहीं, भीतर से बहने लगता है। यही वह क्षण है जब लाली देखने वाला, स्वयं "लाल" हो जाता है।

संदेश

जो सत्य को देखने जाता है, वह सत्य में ही विलीन हो जाता है।
जो प्रेम को जानना चाहता है, वह प्रेम बन जाता है।
जो ईश्वर को पाना चाहता है, वह स्वयं ईश्वर की झलक बन जाता है।

अंतिम पंक्ति:

"लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल" — यह केवल दो पंक्तियों का दोहा नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति का उद्घोष है।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


4. यह कबीरदास जी का प्रसिद्ध दोहा है, जो प्रेम और आत्मसमर्पण की गहराई को दर्शाता है:

दोहा:

कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥

भावार्थ:

कबीर साहब कहते हैं कि यह "प्रेम का घर" (ईश्वर का मार्ग, सच्चा भक्ति मार्ग) कोई साधारण या आराम का स्थान नहीं है — यह कोई ख़ाला (मौसी) का घर नहीं है जहाँ बिना किसी कठिनाई के प्रवेश मिल जाए। इसमें प्रवेश वही कर सकता है जो अपने अहंकार (सीस) को उतारकर, पूर्ण आत्मसमर्पण (हाथ में सिर लिए) कर दे। जब तक कोई अपने स्वाभिमान, अंहकार, और सांसारिक पहचान को त्यागकर न आए, तब तक वह प्रेम के इस गहन मार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता।

प्रेम का यह मार्ग केवल भावना नहीं, एक सम्पूर्ण जीवन का तप है। इसमें हमें न केवल अपने अहं को त्यागना होता है, बल्कि हर उस बात से मुक्त होना पड़ता है जो हमें 'स्वयं' से बाँधती है। जब तक हम यह सोचते हैं कि "मैं जानता हूँ", "मैं योग्य हूँ", तब तक हम सत्य प्रेम के द्वार पर भी नहीं पहुँच सकते।

यह मार्ग किसी विशेष वेश, जाति या पद का मोह नहीं रखता; यहाँ केवल एक ही प्रवेश-शर्त है — पूर्ण समर्पण।

जो प्रेम के इस मार्ग में कदम रखता है, वह भीतर से बदलता है। वह अपनी अपेक्षाओं, स्वार्थों और असुरक्षाओं को छोड़कर एक ऐसी अवस्था में पहुँचता है जहाँ केवल 'प्रेम' और 'ईश्वर' ही रह जाते हैं।

मुख्य संदेश:

प्रेम (ईश्वर या आत्मा से एकता) की राह सहज नहीं है। इसमें अपने 'स्व' का बलिदान करना पड़ता है। यह समर्पण, विनम्रता और त्याग की मांग करता है। और जो इस समर्पण को सच्चे मन से करता है, वही इस 'प्रेम के घर' में स्थान पाता है।


महत्वपूर्ण विचार:

  • जहाँ सिर झुकता है, वहीं प्रेम उतरता है।
  • सच्चा प्रेम तब ही प्रकट होता है जब हम 'मैं' को मिटाकर 'तू' में रम जाएँ।
  • प्रेम की राह में चलना आसान नहीं, लेकिन जो चल पड़ा — वह खोकर भी सब कुछ पा गया।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


5. मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय  



~ आनंद किशोर मेहता

भारतीय संत परंपरा में ऐसे अनेक वचन हैं जो जीवन की गहराई को कुछ ही शब्दों में उजागर कर देते हैं। उन्हीं में से एक है — "मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।" यह केवल एक पंक्ति नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन-दर्शन का सार है।

गृहस्थ धर्म का सच्चा रूप

कबीर साहब ने जब यह वाक्य कहा, तब वे न केवल आध्यात्मिकता की बात कर रहे थे, बल्कि एक गृहस्थ के कर्तव्यों की मर्यादा भी स्थापित कर रहे थे। इसमें एक ऐसी भावना छिपी है जिसमें स्वयं की आवश्यकता और दूसरों की सेवा दोनों को एक साथ संतुलित किया गया है।

ना तो केवल परमार्थ में इतना डूब जाना कि अपना जीवन कष्टमय हो जाए, और ना ही स्वार्थ में इतने लिप्त हो जाना कि किसी भूखे, प्यासे, जरूरतमंद की ओर भी न देखें। यह विचार उसी संतुलन का परिचायक है जिसे धर्म कहा गया है।

भूख केवल शरीर की नहीं होती

"भूखा" शब्द यहां केवल अन्न की भूख तक सीमित नहीं है। यह संवेदना की भूख, समर्पण की भूख, और सहयोग की भूख को भी छूता है। एक साधु भले ही भिक्षा में दो रोटियां मांगता हो, पर वास्तव में वह प्रेम, आत्मीयता और सम्मान की भी आशा करता है।

वहीं, एक गृहस्थ भी यदि अपना जीवन संयमित और सहृदय नहीं बनाता, तो वह भी किसी न किसी रूप में भूखा ही रहता है — कभी प्रेम का, कभी शांति का, कभी आत्मिक तृप्ति का।

त्याग और अधिकार का समरस संगम

यह वाक्य बताता है कि त्याग और अधिकार साथ-साथ चल सकते हैं। हम स्वयं भी संतुलित जीवन जिएं — भूखे न रहें, दुःखी न हों — और साथ ही दूसरों की पीड़ा का भी यथासंभव निवारण करें। यही जीवन की सच्ची तपस्या है।

आधुनिक संदर्भ में इस पंक्ति का महत्व

आज की दौड़ती दुनिया में लोग या तो खुद में इतने व्यस्त हैं कि दूसरों की भूख देख ही नहीं पाते, या फिर स्वयं को भूलकर सबको देने में खुद टूट जाते हैं। पर जीवन तब ही सुंदर बनता है जब हम दूसरों को देते हुए स्वयं को भी भूखों में न रखें — भावनात्मक रूप से, मानसिक रूप से, और भौतिक रूप से भी।


उपसंहार

कबीर साहब जी की यह छोटी-सी पंक्ति हमें सिखाती है कि जीवन में संवेदना और विवेक का संतुलन होना आवश्यक है। अपने जीवन को ऐसा बनाएं कि न तो आप स्वयं किसी के आगे हाथ फैलाएं, और न ही कोई जरूरतमंद आपके द्वार से खाली लौटे।

यही सच्चा धर्म है। यही सच्चा मानवता-पथ है।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.



6. जात नहीं ज्ञान की पहचान हो — कबीर का क्रांतिकारी सन्देश




"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।"

संत कबीरदास

भारतीय समाज की जड़ें गहराई तक जाती-पांति, वर्गभेद और सामाजिक संरचनाओं में धंसी रही हैं। ऐसे समाज में संत कबीरदास की यह वाणी किसी क्रांति से कम नहीं थी। यह दोहा उस समय भी एक चेतावनी थी और आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

कबीर का संदेश: ज्ञान सर्वोपरि है

कबीरदास जी ने जिस सादगी और स्पष्टता से यह संदेश दिया, वह हमें झकझोर देता है। वह कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति की जाति, कुल या वंश नहीं पूछना चाहिए, विशेषकर जब वह साधु, ज्ञानी या विचारक हो। एक साधु की पहचान उसके ज्ञान से होनी चाहिए, न कि उसके जन्म से।

मूल्यांकन करो गुणों का, न कि पहचान का

दोहे की दूसरी पंक्ति — "मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान" — एक अद्भुत उपमा है। जैसे तलवार की धार उसका मूल्य तय करती है, न कि उसकी म्यान (खोल), वैसे ही किसी व्यक्ति का मूल्य उसके विचार, कर्म और ज्ञान से तय होना चाहिए, न कि उसके सामाजिक लेबल से।

समाज में इस विचार की प्रासंगिकता

आज जब हम शिक्षा, योग्यता, और तकनीक की दुनिया में कदम रख चुके हैं, तब भी कहीं न कहीं जातिवाद, भेदभाव और पूर्वाग्रह की जड़ें बाकी हैं। कबीर का यह दोहा हमें याद दिलाता है कि समाज की सच्ची उन्नति तभी संभव है, जब हम इंसान को उसकी सोच और सेवा से परखें, न कि उसके नाम या वंश से।

शिक्षा का मूल उद्देश्य

शिक्षा संस्थानों, कार्यस्थलों और सामाजिक जीवन में कबीर की इस सोच को लागू किया जाए तो समाज अधिक समरस, न्यायपूर्ण और मानवीय बन सकता है। आज हमें बच्चों को यह सिखाने की आवश्यकता है कि किसी व्यक्ति का सम्मान उसके विचार, व्यवहार और गुणों से तय होता है।


निष्कर्ष:
संत कबीर का यह दोहा केवल एक कविता नहीं, बल्कि एक सामाजिक घोषणा है — कि समाज में बदलाव लाना है तो ज्ञान, संवेदना और कर्म को महत्व देना होगा। हमें अपने बच्चों को यह सीख देनी चाहिए कि वे व्यक्ति की आत्मा को पहचानें, न कि उसकी जाति या बाहरी पहचान को।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.



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