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नारी: अमर शक्ति का अमृत स्रोत

1. नारी: अमर शक्ति का अमृत स्रोत 

~ आनंद किशोर मेहता

प्रस्तावना:

नारी केवल एक शरीर नहीं, बल्कि उस चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है, जो सृष्टि को सहेजती, सँवारती और संवारती है। समाज ने उसे कभी आंवले-सी कसैली, कभी अबला कहकर सीमित करने की कोशिश की, परंतु यदि हम एक क्षण ठहरकर उसके जीवन को देख पाएं, तो पाएंगे कि वह एक ऐसा स्रोत है – जहाँ प्रेम, शक्ति, धैर्य और करुणा अनवरत प्रवाहित होते हैं। यह लेख नारी के उसी स्वरूप को सामने लाने का एक विनम्र प्रयास है।


नारी को आंवला क्यों कहा गया?

जब भी किसी ने नारी की उपमा दी, अक्सर कहा –
“वह आंवले जैसी होती है – कसैली, पर गुणों से भरपूर।”
पर क्या यह उपमा उसके विराट स्वरूप को बाँध सकती है?

नहीं!
क्योंकि नारी केवल एक गुण नहीं,
वह गुणों की जननी है।
वह आंवला नहीं – वह अमृत है,
जिससे सजीव संसार जीवन पाता है,
संस्कार पाते हैं,
और सृष्टि अपना संतुलन पाती है।


नारी: दो नहीं, एक जीवन में दो ज़िम्मेदारियाँ

जब पुरुष एक जिम्मेदारी उठाकर थक जाता है,
नारी दो-दो दुनियाओं को थामे रखती है –
एक घर की, एक बाहर की।

  • वह थकती है, फिर भी मुस्कराती है।
  • वह रोती है, फिर भी सबको हँसाती है।
  • उसकी दिनचर्या सिर्फ क्रियाओं की सूची नहीं,
    बल्कि त्याग की कविता है।

वह हर दिन प्रेम और कर्तव्य का संगम बनकर
संसार को सुंदर बनाती है।


जहाँ पुरुष टूटता है, वहाँ नारी संबल बनती है

जब जीवन कठिन होता है,
तो पुरुष अक्सर सहारे की तलाश करता है,
और वहीं,
नारी सहारा बन जाती है।

  • वह अकेली खड़ी हो जाती है – अपने पति, बच्चों, पूरे परिवार के लिए।
  • वह आँसू पी जाती है ताकि दूसरों की आँखों में चमक बनी रहे।
  • वह खुद टूटती है, पर अपनों को बिखरने नहीं देती।

उसकी यही शक्ति, यही चुप्पी,
उसे अमर बना देती है।


नारी: सिर्फ पत्नी या माँ नहीं, आत्मा की ऊँचाई है

यदि पति नहीं रहा,
तो वह अपनी इच्छाओं को त्यागकर
बिना कोई दूसरा सहारा लिए
अपने बच्चों का भविष्य बुनती है।

जबकि पुरुष,
अक्सर परिस्थिति से पलायन करता है –
नई शादी, नया जीवन।

पर नारी?
वह अपने टूटे हुए जीवन को जोड़कर
एक नई संवेदनशील दुनिया रचती है।

यह उसकी वासना नहीं,
उसका व्रत है – जो सिर्फ एक नारी निभा सकती है।


नारी: सृष्टि की रीढ़, संस्कृति की संरक्षिका

नारी वह धुरी है
जिस पर पूरा समाज घूमता है।
वह सिर्फ शरीर नहीं,
बल्कि विचार, ऊर्जा और सृजन का संगम है।

  • वह प्रेम है,
  • वह शक्ति है,
  • वह प्रेरणा है।

अगर पुरुष पथ है,
तो नारी दीपक है –
जो उस पथ को रोशन करती है,
बिना जली दिखाई दिए।


वह सिर्फ पत्नी नहीं, वह बेटी, बहन, मित्र और मार्गदर्शक भी है

  • बेटी बनकर वह घर में कोमलता लाती है,
  • बहन बनकर संघर्ष में संबल बनती है,
  • पत्नी बनकर जीवन को पूरक बनाती है,
  • माँ बनकर ईश्वर की करुणा बन जाती है,
  • और शिक्षिका बनकर संस्कारों की मशाल थमा देती है।

वह हर रूप में आशीर्वाद है –
जिसे हम पहचान ही नहीं पाए!


उपसंहार: नारी को नहीं, दृष्टिकोण को बदलिए

नारी को “कमज़ोर”, “दया की पात्र” या “दूसरे के सहारे जीने वाली” समझना
केवल उस समाज की कमजोरी है,
जो उसकी शक्ति को देख ही नहीं पाया।

अब समय है –
कि नारी को सिर्फ सम्मान नहीं, श्रद्धा दी जाए।
उसे बराबरी नहीं, श्रेष्ठता का स्थान मिले –
क्योंकि वह केवल मानव नहीं,
मानवता का सबसे ऊँचा स्वरूप है।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


2. बेटी या बहू नहीं, एक दासी चाहिए? — सोच का पतन और परिवार का पतन


~ आनंद किशोर मेहता

हम जिस समाज में रहते हैं, वहाँ रिश्तों की गहराई कम होती जा रही है और स्वार्थ का दायरा बढ़ता जा रहा है। विवाह जैसे पवित्र बंधन को भी कुछ लोग सुविधा, सेवा और स्वार्थ का सौदा समझने लगे हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी अनेक परिवारों में बहू या बेटी को समान अधिकारों और आत्मसम्मान के साथ नहीं देखा जाता, बल्कि उन्हें घर के कामों में निःस्वार्थ लगे रहने वाली "दासी" के रूप में स्वीकार किया जाता है।

बेटी नहीं, घर के लिए एक सेविका चाहिए

जब किसी परिवार में बहू का चयन केवल इस आधार पर हो कि वह "हमारे बेटे और घर की सेवा कर सके", तो यह सोच ही उस विवाह की नींव को हिला देती है। लड़की की शिक्षा, भावनाएँ, इच्छाएँ और आत्मसम्मान को तिलांजलि देकर अगर उसे केवल रसोई, कपड़े, बच्चों की देखभाल और सेवा में झोंक दिया जाता है, तो यह न केवल अमानवीय है, बल्कि अपराध के समान है। बेटी को जन्म देने से पहले ही बहुत-से लोग यह सोचते हैं — "कौन पालेगा और फिर पराया धन समझकर भेज देंगे, जो किसी और के काम आएगी।" इस मानसिकता ने न जाने कितनी बच्चियों का अस्तित्व छीन लिया है।

बहू: एक इंसान, न कि मुफ्त की मजदूर

बहू किसी घर की इज्ज़त होती है, न कि श्रमिक। उसे सम्मान और अपनापन चाहिए, न कि केवल आदेश। जब एक लड़की विवाह कर किसी नए घर में आती है, तो वह अपने पीछे सब कुछ छोड़कर एक नए जीवन की शुरुआत करती है। उसके मन में आशा होती है कि उसे वहाँ प्रेम, सहयोग और सम्मान मिलेगा। लेकिन जब उससे बिना थके, बिना बोले, बिना अधिकार दिए हर काम की उम्मीद की जाती है, तो वह टूट जाती है। ऐसे परिवारों में धीरे-धीरे रिश्ते कड़वे होते हैं, संवाद बंद होता है, और अंततः परिवार बिखर जाते हैं।

इस सोच से टूटता है पूरा समाज

यह गलत सोच सिर्फ एक घर को नहीं तोड़ती, यह पूरे समाज को भीतर से खोखला कर देती है। जब लड़कियों को बोझ समझा जाए, जब बहुओं को अपनाया न जाए, जब सेवा की अपेक्षा प्रेम से ऊपर रखी जाए, तो वहाँ बच्चों को क्या मूल्य मिलेंगे? अगली पीढ़ी में क्या संस्कार जन्म लेंगे? यही सोच आगे चलकर दहेज, हिंसा, तलाक और आत्महत्याओं जैसे गंभीर सामाजिक संकटों का कारण बनती है।

समाधान: सोच बदलो, समाज बदलेगा

  • बेटी और बहू को समान भाव से देखना सीखें।
  • रिश्तों में कर्तव्य नहीं, करुणा और संवाद रखें।
  • घर के कामों में सभी की भागीदारी हो, यह केवल स्त्री का दायित्व नहीं।
  • बहू को भी निर्णय लेने, आराम करने और अपने सपनों को जीने का अधिकार मिले।
  • लड़कों को सिखाएं कि सेवा केवल बहू से नहीं, घर के हर सदस्य से अपेक्षित है।

निष्कर्ष

समाज तभी बदलेगा जब सोच बदलेगी। बेटी और बहू को नौकरानी समझने वाली मानसिकता को त्यागना होगा। वे भी इंसान हैं — उनके भी सपने हैं, भावनाएँ हैं, आत्मा है। रिश्तों को सेवा नहीं, स्नेह चाहिए। तभी परिवार भी बचेगा और समाज भी।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.



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