सेवा की रहमत: जब 'मैं' मिट गया ।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
कभी-कभी जीवन की राह में एक ऐसा मोड़ आता है,
जहाँ कोई आवाज़ नहीं होती — पर भीतर एक गूंज उठती है।
एक सोच जागती है… और उसी क्षण सब कुछ बदल जाता है।
मैं उस क्षण की बात कर रहा हूँ,
जब अहंकार की दीवारें खुद-ब-खुद ढहने लगती हैं,
और “मैं” — जो अब तक हर सोच, हर भाव, हर कर्म का केंद्र था —
धीरे-धीरे पिघलने लगता है।
जब 'मैं' खो गया,
तो कोई राह न रही, कोई मंज़िल न रही।
पर वहीं से एक नई यात्रा शुरू हुई —
रूह की यात्रा, जिसमें मौन बोलने लगा,
और ख़ामोशी में सेवा का अर्थ समझ में आने लगा।
सेवा तब तक बोझ लगती है, जब तक वह किसी पुण्य या फल की आशा से जुड़ी हो।
पर जब ‘मैं’ मिटता है,
तब सेवा एक रहमत बन जाती है —
ऐसी रहमत जो आत्मा को हल्का करती है,
और कर्म को इबादत में बदल देती है।
मैंने जाना,
सेवा तब सबसे पवित्र होती है,
जब उसे करने वाला मौजूद ही न हो —
केवल भाव बचे, समर्पण बचा, और रूह की ख़ामोशी बचे।
अब न कोई नाम चाहता हूँ,
न कोई पद, न कोई पहचान।
बस एक सौगात चाहिए —
कि किसी की आँख में आँसू हो,
तो मेरी चुप्पी उसे सहारा दे सके।
सेवा अब कर्म नहीं, मेरी साँस बन गई है।
समर्पण अब विकल्प नहीं, मेरी प्रकृति बन गई है।
और मौन अब मेरी सबसे ऊँची प्रार्थना बन गया है।
शब्दों से परे,
सेवा में लीन होकर जीना —
यही रूह की असली आज़ादी है।
एक सोच जागी उस मंजर में, जहाँ ‘मैं’ खो गया, न रहा कोई डगर। बस रह गई रूह की ख़ामोशी, सेवा की सौगात बनी, समर्पण की रहमत बनकर।
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