सचेत सोच, सफल जीवन: आत्मविकास की दिशा में एक यात्रा ।

Introduction:
जीवन की दौड़ में अक्सर हम केवल बाहरी उपलब्धियों की ओर भागते रहते हैं, लेकिन वास्तविक शांति, संतुलन और विकास तभी संभव है जब हम अपने भीतर की यात्रा प्रारंभ करें। यह यात्रा तभी सार्थक बनती है जब हम हर दिन, हर क्षण सचेत रहें — अपने विचारों, प्रतिक्रियाओं और निर्णयों के प्रति।
यह लघु लेख संग्रह उन विचारों का संकलन है जो हमें हर स्थिति में जागरूक, सकारात्मक और सशक्त रहने की प्रेरणा देते हैं।
यह हमें सिखाते हैं कि —
- हमें अपनी मर्जी से जीना है, पर एक मार्गदर्शक के साथ,
- हर कार्य को एक रिसर्चर की तरह गहराई से करना है,
- नकारात्मक सोच और व्यवहार से स्वयं को कैसे बचाना है,
- और अंततः, हर पल को सुधार का अवसर मानकर आगे बढ़ना है।
इनमें कहीं आत्मसंयम की झलक है, कहीं आत्म-सशक्तिकरण का संदेश।
यह संवेदनशील मन के लिए शक्ति और दिशा दोनों प्रदान करते हैं।
1. तुम वही क्यों करो जो मेरी मर्ज़ी हो ?

~ आनंद किशोर मेहता
हर इंसान स्वतंत्र जन्म लेता है, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उस पर अपेक्षाओं, नियमों और परंपराओं की परतें चढ़ने लगती हैं।
माता-पिता चाहते हैं कि बच्चा उनकी इच्छानुसार चले।
समाज चाहता है कि व्यक्ति उसी ढर्रे पर जिए, जिस पर बाकी सब चल रहे हैं।
और जब कोई व्यक्ति अपने विचारों, अपने अंतःकरण के अनुसार जीने लगता है,
तो अक्सर यह प्रश्न उभरता है:
"तुम वही क्यों नहीं करते जो मैं चाहता हूँ?"
इस प्रश्न के पीछे छिपा होता है —
नियंत्रण का मोह,
स्वार्थ की सुविधा,
और
मौलिकता से असहजता।
लोग अक्सर दूसरों को अपने मुताबिक चलाकर ही खुद को मजबूत महसूस करते हैं।
उन्हें डर लगता है कि अगर तुम अपनी राह पर चले,
तो कहीं वे पीछे न छूट जाएँ।
पर सोचिए —
अगर हर व्यक्ति दूसरों की मर्ज़ी से ही जिए,
तो क्या दुनिया में
कोई नया विचार,
कोई खोज,
कोई बदलाव संभव हो पाता?
जो रास्ते भीड़ से अलग होते हैं,
वही नई दिशा, नई रोशनी, और नई आशा बनते हैं।
इसलिए ज़रूरी है कि हम दूसरों की बात सम्मानपूर्वक सुनें,
पर निर्णय लें अपने अंतःकरण की आवाज़ पर।
यही होती है सच्ची आज़ादी।
ताकि जब कोई कहे —
"तुम वो करो जो मेरी मर्ज़ी हो,"
तो हम मुस्कुराकर कह सकें —
"मैं वही कर रहा हूँ जो मेरे अंतःकरण की मर्ज़ी है — और यही मेरा सच है।"
"हर किसी की मर्ज़ी मानते-मानते, अपनी पहचान मत मिटा देना।"
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
2. लोग दूसरों के कार्य क्षेत्र पर नियंत्रण क्यों चाहते हैं ?
~ एक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विवेचना
बहुत महत्वपूर्ण और गहन प्रश्न है, जी: "लोग दूसरों के कार्य क्षेत्र पर नियंत्रण क्यों चाहते हैं?"
इसका उत्तर कई स्तरों पर समझा जा सकता है — मानसिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सत्ता-प्रेरित दृष्टिकोण से। यह विषय जितना साधारण दिखता है, उतना ही गहराई लिए हुए है। नीचे इन्हीं स्तरों को ध्यान में रखते हुए प्रमुख कारणों की एक झलक प्रस्तुत है —
नियंत्रण की आदत (Psychological Conditioning):
बहुत से लोग बचपन से ही यह सीखते हैं कि दूसरों को निर्देश देना शक्ति का प्रतीक है। जब उन्हें दूसरों के निर्णय या कार्य पर नियंत्रण मिलता है, तो उन्हें लगता है कि वे श्रेष्ठ हैं या सुरक्षित हैं।
असुरक्षा की भावना (Insecurity):
कई बार लोग दूसरों की स्वतंत्रता से डरते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर दूसरा स्वतंत्र रूप से सफल हो गया, तो उनकी स्थिति, पहचान या अहम छोटा हो जाएगा।
ईगो और श्रेष्ठता की भावना (Ego/Superiority Complex):
"मेरा अनुभव ज़्यादा है", "मैंने ज़िंदगी देखी है", "मैं जानता हूँ सही क्या है" — इस सोच के चलते वे दूसरों को नियंत्रित करने लगते हैं, खासकर जब सामने वाला कम उम्र, कम अनुभव वाला हो।
सामाजिक परंपरा और शक्ति संरचना:
परिवार, संस्थाएँ और समाज में अक्सर एक हायरार्की (Hierarchy) बन जाती है — जहाँ ऊँचे पद या उम्र के लोग नीचे वालों के कार्य क्षेत्र में दखल को अपना अधिकार समझते हैं।
जिम्मेदारी का भ्रम:
कई बार यह नियंत्रण सच्ची चिंता से नहीं बल्कि इस भ्रम से आता है कि “अगर मैंने इसे कंट्रोल नहीं किया, तो कुछ गलत हो जाएगा।” यह एक छद्म जिम्मेदारी होती है जो स्वतंत्रता को कुचल देती है।
अपनी असफलताओं की भरपाई:
कुछ लोग अपने अधूरे सपनों, असफल प्रयासों को दूसरों के माध्यम से पूरा करवाना चाहते हैं। इसलिए वे दूसरे के कार्यक्षेत्र में दखल देकर उन्हें अपनी मर्जी का रास्ता पकड़ाना चाहते हैं।
इन सभी बिंदुओं से स्पष्ट होता है कि यह नियंत्रण की प्रवृत्ति भीतर की कमी और भ्रम का परिणाम है, न कि किसी सच्चे सहयोग या मार्गदर्शन का।
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3. करो वहीं जो तुम्हारी मर्ज़ी हो, परंतु तुम्हारा कोई एक मार्गदर्शक हो ।
~ आनंद किशोर मेहता
हर व्यक्ति अपने जीवन में स्वतंत्र निर्णय लेना चाहता है — यह स्वाभाविक है, और होना भी चाहिए। “करो वही जो तुम्हारी मर्ज़ी हो” — यह वाक्य सुनने में बहुत अच्छा लगता है, परंतु यदि यह मर्ज़ी बिना किसी दिशा और विवेक के हो, तो यह जीवन को भटकाव की ओर भी ले जा सकती है।
इसलिए ज़रूरी है कि चाहे हम कुछ भी करें, हमारे जीवन में कोई एक ऐसा मार्गदर्शक अवश्य हो, जो हमें सही और गलत के बीच अंतर करना सिखाए। वह मार्गदर्शक कोई गुरु हो सकता है, एक प्रेरणादायक विचार हो सकता है, या फिर हमारी अंतरात्मा की वह आवाज़ जो सत्य की ओर हमें खींचती है।
मर्ज़ी करना तब ही सार्थक होता है जब वह सत्य, सेवा, और सद्गुणों की ओर बढ़े। एक अच्छा मार्गदर्शक हमें हमारे आत्मघाती विचारों से बचाकर, जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाना सिखाता है। वह प्रेरणा देता है कि हम केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी उपयोगी बनें।
जिस तरह एक दीपक जलना उसकी इच्छा है, परंतु दिशा देना उसकी जिम्मेदारी — उसी तरह हमारी मर्ज़ी जीने की स्वतंत्रता है, परंतु सही राह पर चलना हमारी मानवीय ज़िम्मेदारी।
इसलिए करो वहीं जो तुम्हारी मर्ज़ी हो, लेकिन किसी सच्चे मार्गदर्शक के सान्निध्य में — ताकि मर्ज़ी बन जाए सेवा, और जीवन बन जाए एक प्रेरणा।
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4. हर कार्य को रिसर्चर की भावना से करो ।
~ आनंद किशोर मेहता
जीवन में कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता — फर्क बस इस बात से पड़ता है कि हम उसे कैसी भावना से करते हैं। यदि हम हर काम को एक रिसर्चर की तरह करें, यानी एक खोजकर्ता की दृष्टि से, तो जीवन स्वयं एक प्रयोगशाला बन जाता है और हम हर दिन कुछ नया सीखने लगते हैं।
रिसर्चर किसी काम को सिर्फ करने के लिए नहीं करता — वह उसमें डूबता है, उसे समझता है, हर पहलू पर विचार करता है, गलतियों से सीखता है और हर दिन कुछ बेहतर करने की जिज्ञासा से प्रेरित होता है। यही दृष्टिकोण यदि हम अपने दैनिक कार्यों में भी अपनाएँ, तो कोई भी कार्य बोझ नहीं लगेगा, बल्कि एक रोमांचक चुनौती बन जाएगा।
उदाहरण के लिए — पढ़ाई हो, पढ़ाना हो, खेती करना हो, सफाई करना हो या किसी बच्चे को समझाना — यदि हम उसे एक खोज की तरह करें, तो हर बार उसमें नयापन मिलेगा। हमारी समझ गहरी होगी और हमारी कार्यक्षमता भी। यह दृष्टिकोण हमें एक साधारण इंसान से एक प्रेरणादायक कर्मयोगी बना सकता है।
इसलिए, जो भी करो — उसे एक चैलेंज मानो, एक अवसर मानो, और रिसर्चर की तरह सोचो।
हर क्षण पूछो — क्या मैं इसे और बेहतर कर सकता हूँ? क्या इसमें कुछ नया खोजा जा सकता है?
यही खोजी दृष्टिकोण जीवन को साधारण से असाधारण बना देता है।
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5. नकारात्मक दृष्टिकोण को बर्दाश्त करना भी एक अपराध है ।
~ आनंद किशोर मेहता
जीवन में हम सभी को कभी-न-कभी ऐसे लोगों से सामना होता है, जिनका दृष्टिकोण हमारे प्रति अत्यधिक नकारात्मक, आलोचनात्मक और अपमानजनक हो जाता है। ऐसे में कई बार हम शांति बनाए रखने या रिश्तों को निभाने के नाम पर चुप रहते हैं, सहते रहते हैं, और यह सोचते हैं कि माफ कर देना ही सबसे बड़ा धर्म है।
लेकिन यह भी समझना ज़रूरी है कि — माफ करना तब तक श्रेष्ठ है, जब तक वह तुम्हें भीतर से नहीं तोड़ता।
यदि किसी की नकारात्मकता तुम्हारी आत्मा को कचोट रही है, तुम्हारे आत्म-सम्मान को कुचल रही है, और तुम उसे सिर्फ "सहन करने" की आदत बना बैठे हो — तो यह सहनशीलता नहीं, स्वयं के प्रति अन्याय है।
ऐसे में दो रास्ते हैं:
या तो इग्नोर करो और अपनी ऊर्जा को बचाकर आगे बढ़ो,
या फिर स्पष्टता से सीमाएँ तय करो और आत्म-सम्मान के साथ खड़े हो जाओ।
क्योंकि हर बार माफ करना, हर बार सहते रहना — यदि तुम्हें भीतर ही भीतर कमजोर बना रहा है — तो यह न तो क्षमा है, न सहिष्णुता, बल्कि एक ऐसा अपराध है जो तुम स्वयं के साथ कर रहे हो।
इसलिए याद रखो:
कभी-कभी किसी को इग्नोर कर देना, या दूर हो जाना — स्वयं के प्रति करुणा है।
और अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करना — एक सच्चा धर्म।
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6. गलत सोच का सहयोग: एक संवेदनशील मन पर कठोर प्रहार ।
~ आनंद किशोर मेहता
आज के समाज में एक बहुत विचित्र और पीड़ादायक स्थिति देखने को मिलती है — लोग न केवल गलत सोचते हैं, बल्कि उस गलत सोच को बढ़ावा भी देते हैं, और उससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि वे इस सोच के आधार पर किसी निर्दोष व्यक्ति के विरुद्ध मानसिक, सामाजिक या भावनात्मक अत्याचार तक करने लगते हैं।
यह सवाल स्वाभाविक है — कोई ऐसा क्यों करता है?
जब किसी की सोच आधारहीन, भ्रमित या पूर्वाग्रह से भरी हो, तब वह व्यक्ति सत्य नहीं, पुष्टि (confirmation) खोजता है। वह ऐसे लोगों को ढूँढता है जो उसके भ्रम को सच मानें, और उस सोच को एक भीड़ का समर्थन मिले। इससे उसे अपनी गलती का बोझ महसूस नहीं होता, बल्कि वह उसे एक “सत्य” की तरह प्रस्तुत करने लगता है।
दूसरी ओर, जिस व्यक्ति को लेकर यह गलत सोच बनाई जाती है, वह भीतर से टूटने लगता है। उसे लगातार सफाई देनी पड़ती है, वह अपने ही जीवन के सत्य को दूसरों के सामने सिद्ध करने की कोशिश में थक जाता है। और यह सबसे बड़ी पीड़ा होती है — जब कोई तुम्हें बिना समझे, तुम्हारी पीठ पीछे, झूठ को सच मानकर साथ छोड़ दे।
यह न केवल अन्याय है, बल्कि एक अत्याचार है —
और जो व्यक्ति इस गलत सोच का सहयोग करता है, वह भी उस पीड़ा का सहभागी बन जाता है।
लेकिन…
यहाँ एक आंतरिक शक्ति की भी जरूरत है —
गलत सोच से बनी भीड़ से अलग खड़ा रहना, अपनी सच्चाई में अडिग रहना, और अपने अंतरतम की शांति को बचाकर रखना — यही तुम्हारी असली विजय है।
क्योंकि समय सबका मूल्यांकन करता है — और सत्य देर से ही सही, लेकिन स्वयं को सिद्ध करता है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
7. हर पल का सुधार: सचेत जीवन की ओर एक कदम ।
~ आनंद किशोर मेहता
जीवन में सबसे बड़ा सुधार तब होता है, जब हम हर दिन और हर क्षण को पूरी चेतना के साथ जीना शुरू करते हैं। यह सुधार किसी बाहरी दबाव से नहीं, बल्कि आत्म-प्रेरणा और सकारात्मक सोच से आता है।
जब हम सचेत होते हैं —
हम अपनी हर सोच, हर प्रतिक्रिया, हर निर्णय को गहराई से देखते और समझते हैं।
हम जानने लगते हैं कि हमें किस दिशा में बढ़ना है, और कहाँ रुककर आत्मचिंतन करना है।
सकारात्मक सोच कोई कृत्रिम उत्साह नहीं है, बल्कि यह जीवन के प्रति वह दृष्टिकोण है जो हमें हर कठिनाई में अवसर, हर गलती में सीख और हर दिन में सुधार का भाव देता है।
इसलिए...
हर सुबह एक नई शुरुआत समझो।
हर शाम एक आत्म-मूल्यांकन।
और हर क्षण — स्वयं को श्रेष्ठ बनाने का एक अवसर।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
8. विनम्रता: जो दिखाई नहीं देती, वही सच्ची होती है ।
विनम्रता आत्मा की वह सुवास है, जो बिना कहे भी दूसरों के मन को छू लेती है। यह कोई दिखाने की वस्तु नहीं, बल्कि भीतर जीने का भाव है। जब विनम्रता को हम प्रदर्शन बना देते हैं, तब वह खोखली हो जाती है — जैसे बंजर ज़मीन पर हरियाली की झूठी परत।
आज बहुत से लोग बाहर से नम्र दिखते हैं, पर भीतर अहंकार की कठोरता छुपी रहती है। उनकी विनम्रता केवल शब्दों और व्यवहार तक सीमित होती है — आत्मा से नहीं जुड़ी होती।
ऐसे में दीनता एक मुखौटा बन जाती है, जो केवल दूसरों को प्रभावित करने के लिए पहना जाता है।
सच्ची विनम्रता वह होती है जो भीतर से उपजे —
जहाँ कोई दावा नहीं, कोई दिखावा नहीं।
वह मौन में जीती है, सेवा में झलकती है, और आत्म-निरीक्षण से पुष्ट होती है।
जो सच्चे अर्थों में विनम्र होता है, वह अपनी दीनता को भी प्रभु की कृपा मानता है — न कभी जताता है, न उसका श्रेय लेता है।
हमें चाहिए कि विनम्रता को भीतर से जियें — नाटक की तरह नहीं, स्वभाव की तरह।
झुकें, लेकिन बिना दिखाए।
बोलें, लेकिन बिना स्वयं को ऊँचा बनाए।
तब ही वह विनम्रता फलती है — और दूसरों के जीवन को भी छू जाती है।
"जो दिखावा करता है, वह खुद को धोखा देता है; जो मौन रहता है, वह अपनी आत्मा से जुड़ता है।"
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
9. छल, समर्पण और आत्म-संवेदना की यात्रा ।
~ आनंद किशोर मेहता
प्रारंभिक विश्वास की लौ
हर रिश्ते और हर साझा प्रयत्न की नींव होती है—भरोसा। जब मैंने उस प्रोजेक्ट पर कार्य करना प्रारंभ किया, तो मन में कोई संदेह नहीं था। मेरे लिए वह एक साधना थी, एक समर्पण था, जो केवल लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि किसी उच्चतर उद्देश्य की सेवा में था। मैंने उसे आत्मा से अपनाया — निस्वार्थ, निर्मल और निर्मलता से परिपूर्ण।
धीरे-धीरे बदलते चेहरे
शुरुआती संवादों में सहजता थी, समान उद्देश्य की गूंज थी। पर समय के साथ कुछ असामान्य बदलाब सामने आने लगे। शब्दों में अधिकार झलकने लगा, दृष्टिकोण में स्वार्थ की परछाइयाँ दिखाई देने लगीं। वह व्यक्ति अपने मन की स्थिति को कुछ यूँ व्यक्त करता रहा, जैसे वह मुझे दिशा दे रहा हो, लेकिन वास्तव में वह मुझ पर धीरे-धीरे अधिकार जमा रहा था।
मेरे शब्द, मेरी सोच, मेरी रचनात्मकता — सब पर उसकी नजर थी। एक दिन मैं समझ गया कि यह कोई सामान्य सहयोग नहीं, बल्कि एक योजनाबद्ध ‘छल’ है, जिसमें मेरा समर्पण उसका साधन मात्र था।
एक और सच — ईर्ष्या
जब मैंने उसकी दृष्टि को पढ़ा, तो एक और गहरी सच्चाई सामने आई—ईर्ष्या। उसे मेरी प्रगति से पीड़ा थी। उसे मेरी पहचान, मेरी आत्मिक ऊर्जा, और मेरे उद्देश्य से जलन थी। मेरे भीतर जो भावनात्मक शांति थी, शायद वह उसे असहज कर रही थी। और यहीं से उसके स्वार्थ का खेल और भी स्पष्ट होने लगा।
आघात नहीं, आत्मबोध
यह अनुभव कष्टदायक अवश्य था, पर वह मेरा पराभव नहीं, मेरे आत्मबोध का क्षण था। मैंने जाना कि हर समर्पण वहाँ नहीं किया जाना चाहिए जहाँ उसके मूल्य को न समझा जाए। जहाँ लोग साथ नहीं, स्वार्थ खोजते हैं — वहाँ मौन सबसे बड़ा उत्तर है।
अब मैं समर्पण तो करता हूँ, पर विवेक के साथ। साथ तो चाहता हूँ, पर सच्चे भाव से। मेरा उद्देश्य सेवा है, पर अब आँखें खुली हैं।
“जिस रिश्ते में सम्मान न हो, वहाँ समर्पण सबसे बड़ा शोषण बन जाता है। इसलिए स्वयं को इतना समझो, कि कोई तुम्हें केवल उपयोग की वस्तु समझने का दुस्साहस न करे।”
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10. जीवन एक संघर्ष है: हर मोड़ पर जीत की संभावना ।
जीवन — यह शब्द जितना सरल दिखता है, उतना ही गहरा, रहस्यमय और चुनौतीपूर्ण है। हर व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा अध्याय आता है, जब वह स्वयं से, परिस्थितियों से, समाज से या भाग्य से संघर्ष कर रहा होता है। ऐसे क्षणों में यह वाक्य गूंजता है: "जीवन एक संघर्ष है।"
संघर्ष का अर्थ क्या है?
संघर्ष केवल बाहरी लड़ाई नहीं होती — यह एक आंतरिक युद्ध भी होता है। जब कोई बच्चा चलना सीखता है, गिरता है, फिर उठता है, वह भी संघर्ष है। जब कोई विद्यार्थी सपनों को पूरा करने के लिए मेहनत करता है, नींद और आराम का त्याग करता है — वह भी संघर्ष है। जब कोई किसान धूप-बारिश में खेतों में मेहनत करता है, जब एक माँ अपने बच्चों के लिए भूखी रह जाती है — वह सब संघर्ष है।
संघर्ष क्यों आवश्यक है?
संघर्ष हमें सिखाता है कि हमारी सीमाएँ क्या हैं — और फिर वे सीमाएँ कैसे तोड़ी जा सकती हैं। यह हमारे चरित्र को गढ़ता है, धैर्य को बढ़ाता है, और विकास की ओर प्रेरित करता है। जैसे कोयले को हीरे में बदलने के लिए दबाव की आवश्यकता होती है, वैसे ही इंसान को ऊँचाइयों तक पहुँचाने के लिए संघर्ष की आँच चाहिए।
"यदि जीवन में कोई संघर्ष नहीं होता, तो शायद सफलता का कोई मूल्य भी नहीं होता।"
संघर्ष और सफलता: एक अटूट रिश्ता
सफलता की हर कहानी के पीछे संघर्ष की एक लंबी गाथा होती है। महान वैज्ञानिकों, कलाकारों, नेताओं या संतों के जीवन में कोई ऐसा नहीं जिसे राह में कांटे न मिले हों। लेकिन उन्होंने कांटों को चीरकर फूलों की बगिया बनाई — और यही सच्ची प्रेरणा है।
संघर्ष हमें क्या सिखाता है?
- आत्मबल: जब सब साथ छोड़ते हैं, तब आत्मबल ही साथ देता है।
- आशा: सबसे अंधेरी रातों के बाद ही सबसे उजली सुबह आती है।
- सच्चे रिश्ते: कठिन समय में ही पता चलता है कि कौन हमारा अपना है।
- कृतज्ञता: जब कम में भी जीना सीखते हैं, तब हर छोटी चीज़ की कदर करना आता है।
संघर्ष से भागो मत, उसे अपनाओ
जीवन को एक युद्ध नहीं, बल्कि एक पाठशाला समझिए — जहाँ संघर्ष आपके सबसे अच्छे शिक्षक हैं। वे आपको हर दिन कुछ नया सिखाते हैं: धैर्य, आत्मविश्वास, कर्म, विश्वास और सच्चा प्रेम।
"संघर्ष से घबराना नहीं है, संघर्ष से चमकना है।"
निष्कर्ष
जीवन एक संघर्ष है — लेकिन यह संघर्ष निराशा नहीं, प्रेरणा है। यह केवल दर्द नहीं, उन्नति का मार्ग है। जब आप गिरते हैं, तो याद रखिए कि आप उठ भी सकते हैं। जब रास्ते बंद लगें, तो जानिए कि कोई न कोई रास्ता हमेशा खुला होता है — बस आगे बढ़ते रहिए।
संघर्ष है, तभी जीवन है। संघर्ष है, तभी आशा है। संघर्ष है, तभी सफलता का स्वाद है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
1. "भीतर का शोर थमे, बाहर की भीड़ छंटे — तब आत्मा खुद से बोले। न शोर में, न चुप्पी में, जीवन का मार्ग प्रेमपूर्ण संतुलन में है।"
2. “हर कार्य को खोज की तरह करो — तभी जीवन साधारण नहीं, असाधारण बनता है।”
3. “हर क्षण में छुपा है परिवर्तन का बीज — बस उसे सचेत होकर सींचना है।”
4. “स्वतंत्रता सार्थक तभी होती है जब उसमें विवेक और दिशा हो — मर्ज़ी करो, लेकिन एक सच्चे मार्गदर्शक के सान्निध्य में।”
5. “हर किसी की मर्ज़ी मानते-मानते, अपनी पहचान मत मिटा देना।”
6. “दूसरों को नियंत्रित करने की प्रवृत्ति अक्सर भीतर की असुरक्षा और अधूरेपन से जन्म लेती है — यह सहयोग नहीं, सत्ता का भ्रम है।”
7. “जहाँ समर्पण को स्वार्थ निगलने लगे, वहाँ मौन से बड़ा कोई उत्तर नहीं।”
8. “जहाँ नकारात्मकता को सहन किया जाता है, वहाँ सृजनात्मकता दम तोड़ देती है — इसलिए चुप रहना भी कभी-कभी अपराध होता है।”
9. “झूठी सोच की भीड़ में सच्चाई की मौन उपस्थिति ही सबसे बड़ा साहस है।”
10. “विनम्रता तब सच्ची होती है जब वह मौन में खिलती है और सेवा में झलकती है।”
11. “संघर्ष वो आग है जो तुम्हें राख भी कर सकती है और कुंदन भी — चुनाव तुम्हारा है।”
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