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कर्ता रोग छोड़ दो।

कर्ता रोग छोड़ दो ।  लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता कभी सोचा है — हम जो कुछ भी करते हैं, क्या वास्तव में वही हमारे नियंत्रण में होता है? हम कहते हैं — "मैंने किया", "मेरे कारण हुआ", "मेरी मेहनत है" । पर यही "मैं" का अभिमान धीरे-धीरे एक रोग बन जाता है — कर्ता रोग । यह ऐसा सूक्ष्म अहंकार है, जो न दिखता है, न पकड़ा जाता है, लेकिन अंदर ही अंदर आत्मा की पवित्रता को छीन लेता है। कर्ता का बोध: प्रारंभिक भ्रम बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि मेहनत करो, कुछ बनो, सफलता तुम्हारे हाथ में है। यह प्रेरणा देने के लिए उपयोगी है, लेकिन धीरे-धीरे यह सोच भीतर बैठ जाती है कि "सब कुछ मैं ही कर रहा हूँ।" हम भूल जाते हैं कि जीवन की साँसें तक हमारे वश में नहीं हैं। जो व्यक्ति खुद को ही सबका कर्ता मान बैठता है, वह जब किसी असफलता या हानि का सामना करता है, तो टूट जाता है। क्योंकि उसका विश्वास "स्वयं" पर था — परम तत्व पर नहीं। कर्तापन और कर्मफल का बंधन जब हम स्वयं को कर्ता मानते हैं, तो हर कार्य से जुड़ाव हो जाता है — फल की अपेक्षा जन्म लेती है। ...

सरल स्वभाव को कमजोरी न समझें

सरल स्वभाव को कमजोरी न समझें  आज के समय में अक्सर यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति विनम्र, शांत और सरल होता है, उसे लोग कमजोर समझने की भूल कर बैठते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि सरलता कोई कमजोरी नहीं, बल्कि एक गहरा संस्कार है — आत्मबल, संयम और विवेक का प्रतीक। सरल व्यक्ति किसी से डरकर शांत नहीं रहता, वह अपने भीतर के संतुलन और सशक्त संस्कारों के कारण शांति को चुनता है । वह प्रतिक्रिया देने के बजाय प्रत्युत्तर में प्रेम और धैर्य का मार्ग अपनाता है । यह मार्ग आसान नहीं होता, लेकिन यही उसे दूसरों से विशेष बनाता है। याद रखिए, जो सरल है, वही सबसे मजबूत है। क्योंकि उसे दिखावा नहीं करना पड़ता, वह जो है, वही सामने होता है। इसलिए किसी सरल व्यक्ति को कभी कम न आँकें, क्योंकि जब समय आता है, तो वही सबसे बड़ी मिसाल बनता है। सरलता मेरा अभिमान है (कविता) न समझो मुझको कमजोर कभी, ये चुप्पी मेरी पहचान है। संस्कारों में पला बढ़ा मैं, सरलता ही मेरी शान है। न उत्तर दूँ हर कटु वचन का, न रोष दिखाऊँ बात-बात पर, धैर्य है मेरा आभूषण, और शांति है मेरी पतवार पर। तू ललकारे, मैं ...

माता-पिता: जायदाद नहीं, ज़िम्मेदारी हैं।

  माता-पिता: जायदाद नहीं, ज़िम्मेदारी हैं।  ~ आनंद किशोर मेहता इस भौतिकतावादी युग में हमने रिश्तों को भी तौलना सीख लिया है — संपत्ति के तराजू में। माँ-बाप अब ‘विरासत’ का हिस्सा बनते जा रहे हैं, ‘संस्कार’ का नहीं। हमने देखा है — बड़े-बड़े परिवार अदालतों में खड़े हैं, केवल इसलिए कि उन्हें कुछ ज़मीन या पैसा और मिल जाए। पर वही लोग जब माँ-बाप को अस्पताल ले जाने की बारी आती है, तो एक-दूसरे की ओर देखने लगते हैं। यह विडंबना नहीं, समाज की आत्मिक दरिद्रता का प्रतीक है। जायदाद के लिए लड़ाई क्यों? क्योंकि हमें मिलना है। क्योंकि हमें रखना है। क्योंकि हमें बढ़ाना है। पर माँ-बाप की सेवा के लिए कौन लड़ता है? यहाँ किसी को कुछ मिलता नहीं — यहाँ तो केवल दिया जाता है। समय, ध्यान, धैर्य, प्रेम, त्याग और करुणा। और शायद इसी कारण... आज की दुनिया में ये गुण दुर्लभ हो गए हैं। माँ-बाप की जिम्मेदारी कोई भार नहीं जिम्मेदारी बोझ तब बनती है, जब हम उसे "मजबूरी" समझते हैं। पर जिसने माँ-बाप के आँचल की छाया में निस्वार्थ प्रेम को महसूस किया है, जिसने बापू के काँपते हाथों से भी...

छूना है तो... खुद को छू कर आओ

छूना है तो... खुद को छू कर आओ  ~ आनंद किशोर मेहता कुछ लोग पास आना चाहते हैं, कुछ हमें समझना भी चाहते हैं, लेकिन अक्सर वे अपने साथ एक लिबास लाते हैं — चापलूसी का। वे मीठे शब्दों से रास्ता बनाना चाहते हैं, प्रशंसा के फूल बिछाकर रूह तक पहुँचना चाहते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि रूह तक पहुँचने का रास्ता कभी झूठ के फूलों से नहीं सजता। मैं कोई ऐसा दरवाज़ा नहीं जो दिखावे की चाबी से खुल जाए। मैं कोई आईना नहीं जो सिर्फ़ सुंदर चेहरों को पहचानता हो। मैं वो धड़कन हूँ जो केवल सच्चे दिलों की ताल पर बजती है। मुझे छूना है? तो पहले खुद को छूकर आओ। अपने मन का आवरण हटाओ, अपने विचारों को धोओ, अपनी दृष्टि को स्वच्छ करो — और फिर जब तुम आओगे तो शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। तुम्हारी ख़ामोशी ही पर्याप्त होगी। मैं वहाँ नहीं हूँ जहाँ लोग ‘वाह-वाह’ के शोर में खो जाते हैं। मैं वहाँ हूँ जहाँ मौन में आत्मा की सच्चाई बोलती है। मैं वहाँ हूँ जहाँ आंखें झुकती हैं, जहाँ दिल विनम्र होता है, जहाँ मन खाली होता है और भरा होता है सिर्फ़… एक निर्मल भाव से। तो अगर सच में तुम मुझ...

क्या आपने कभी…?

क्या आपने कभी…?  -- आनन्द किशोर मेहता  कुछ सवाल शब्दों में नहीं, आत्मा में जन्म लेते हैं। वे जीवन से नहीं, संवेदनाओं से जुड़े होते हैं। आज मैं ऐसे ही कुछ सवाल आपके सामने रखना चाहता हूँ — न किसी आरोप के रूप में, न किसी ज्ञान के रूप में — बल्कि एक इंसान की पुकार के रूप में। क्या आपने कभी किसी और के दर्द में खुद को टूटते देखा है? न वह आपका रिश्तेदार था, न आपका कोई अपना। फिर भी उसकी आँखों में आँसू देखकर आपके भीतर कुछ पिघल गया। एक मासूम बच्चे की भूख, एक वृद्ध की खामोश आंखें, या किसी मां की बेबस पुकार — क्या कभी कुछ ऐसा था, जिसने आपके दिल को भीतर से हिला दिया? क्या आपने कभी किसी की ख़ुशी के लिए रातों को जागकर दुआ की है? आपको उससे कुछ नहीं चाहिए था। सिर्फ़ इतना चाहिए था कि उसका जीवन थोड़ा मुस्कुरा ले, उसके जीवन में उजाला आ जाए। आपने अपने आंसुओं में उसके सुख की प्रार्थना की — और वह जान भी न सका कि कोई, कहीं, उसकी ख़ुशी के लिए रोया था। क्या आपने कभी किसी को आगे बढ़ाने के लिए खुद पीछे हटने का निर्णय लिया है? कभी किसी को उड़ान देने के लिए अपने पंख काट लिए हों? आपने उसकी क्षमताओं...

किरदार: जो शब्दों से नहीं, कर्मों से बनता है

किरदार: जो शब्दों से नहीं, कर्मों से बनता है।  ~ आनंद किशोर मेहता किसी इंसान के बारे में सबसे बड़ी पहचान उसका किरदार होता है — वो जो दिखावे से नहीं, बल्कि उसकी सोच, वफादारी, और आत्मसम्मान से गढ़ा जाता है। किरदार को न तो किसी तराज़ू से तौला जा सकता है और न ही किसी पद, पैसे या प्रभाव से खरीदा जा सकता है। यह तो वर्षों के सच, संघर्ष और सेवा से आकार लेता है। मैंने जीवन में हमेशा यह महसूस किया है कि जो साथ देता है, वह केवल समय काटने के लिए नहीं देता, बल्कि उस साथ को धर्म की तरह निभाता है । जब किसी के लिए खड़ा होता हूँ, तो अंत तक खड़ा रहता हूँ — चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। क्योंकि यह केवल भावनात्मक जुड़ाव नहीं, बल्कि मेरे किरदार की गवाही है। आज जब समाज में गिरगिट जैसे रंग बदलने वाले चेहरे हर मोड़ पर मिलते हैं, तो मेरा मन और अधिक दृढ़ होता है कि मैं वैसा हरगिज न बनूँ। सच्चाई, निष्ठा और आत्मबल से भरा जीवन भले ही कठिन हो, लेकिन वह स्वाभिमान के साथ जिया गया जीवन होता है ।  ग़द्दारी करना आसान हो सकता है, पर वफ़ा निभाना ही सच्ची बहादुरी है । और यही मेरा चुनाव रहा है — हर रिश्ते, हर ज़...

भाग पांचवां: परिवार की खामोश पुकार: सेवा, समर्पण और सत्य का संघर्ष

परिवार की खामोश पुकार: सेवा, समर्पण और सत्य का संघर्ष ।  ~ आनंद किशोर मेहता INTRODUCTION यह लेख-संग्रह उन अनकहे अनुभवों को उजागर करता है, जो परिवारों में सेवा, समर्पण और आंतरिक संघर्ष से जुड़े होते हैं। कुछ सदस्य निस्वार्थ भाव से अपने बुजुर्गों या परिजनों की सेवा करते हैं, बिना किसी प्रशंसा की अपेक्षा किए, जबकि दूर रहने वाले सदस्य केवल मीठी बातों और थोड़ी सी उपस्थिति से दिल जीतने की कोशिश करते हैं। यह संग्रह इस असंतुलन को चुनौती देता है, जहां सच्ची सेवा और प्रेम को सम्मान मिलना चाहिए, न कि केवल शब्दों और दिखावे को। लेखों में यह भी बताया गया है कि सच्ची सेवा तब होती है जब कोई व्यक्ति बिना किसी पहचान की लालसा के, अपनी जिम्मेदारी पूरी करता है। यह संग्रह हमें यह सिखाता है कि असली सम्मान कर्मों में होता है, न कि केवल शब्दों में। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved. 1. सच्ची सेवा: जहाँ प्रशंसा नहीं, धैर्य ही पुरस्कार है   घर पर रहकर जो सदस्य तन, मन और धन से निस्वार्थ भाव से बुजुर्गों की सेवा कर रहे हैं, वे वास्तव में चुपचाप एक तपस्या निभा रहे हैं। वे न प्रशंसा की अपे...