Skip to main content

Posts

कविता: दयालबाग: The Garden of the Merciful

दयालबाग: The Garden of the Merciful (दयालबाग: दयाल का दिव्य उपवन) दयालबाग — एक पावन धरा, जिसे सर साहब महाराज ने स्नेह से बसाया। नाम रखा — Garden of the Merciful , जहाँ प्रेम, सेवा, भक्ति हैं जीवन के मूल तत्व। रा-धा-ध:--स्व-आ-मी — वह परम पावन नाम, जिसकी गूंज से जाग उठे हर एक कण। प्रेमीजन के हृदय में अटल विश्वास, हर दिशा में बहता चेतना का निर्मल प्रकाश। यह सेवा भूमि करती मन को पावन, जहाँ रूह को मिलती परम शांति की राह। हर कर्म में झलकती मालिक की रजा, हर पल सूर्त जुड़ी मालिक के पवित्र चरणों में। दयालबाग — सहयोग का अनुपम संकल्प, जहाँ संगठन से फूटे चेतना का दिव्य प्रकाश। प्रेम की लहरें छू लें हर एक दिशा, यही है कुल मालिक का आध्यात्मिक संदेश। यह दरबार नहीं, निज उद्धार का है रास्ता, जहाँ आत्मा पाती निज घर का उपहार। मिशन है केवल — सब जीवों का कल्याण, मालिक तक पहुँचे हर रूह का अरमान। मुबारक हो ये राह हर जीवात्मा को, जो निस्वार्थ भाव से बढ़े उनके चरणों की ओर। हम बनें निज प्यारे सेवक — यही अटल प्रण, तन-मन-धन अर्पित करें मानवता की सेवा। © 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All ...

जिससे उम्मीद थी समझने की, उसने मुझे सुधारने की ठान ली

जिससे उम्मीद थी समझने की, उसने मुझे सुधारने की ठान ली ~ आनंद किशोर मेहता कभी-कभी जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति आता है जिससे हम न सिर्फ अपने मन की बात कहते हैं, बल्कि दिल की परतें भी खोल देते हैं। हमें लगता है कि यही तो वो है जो हमें बिना कहे समझ लेगा। जिसकी आंखों में हमारे भीतर की हलचल पढ़ने की क्षमता होगी। जिसे हम अपने टूटे टुकड़ों के साथ स्वीकार कर पाएंगे। और वह हमें वैसे ही अपना लेगा। पर जब वही व्यक्ति, जिसे हमने समझने वाला चुना, हमें 'सुधारने' लगे—तो वह सबसे बड़ी चुभन होती है। "जो हमें समझते हैं, वे हमें कभी भी सुधारने की कोशिश नहीं करते।" मैंने शब्द नहीं मांगे थे, बस थोड़ा सा समझना चाहा था। लेकिन उसने मेरे भावों को 'कमज़ोरी' समझ लिया। "हमारी कमजोरी हमारी सबसे बड़ी ताकत बन सकती है, यदि उसे बिना किसी डर के अपनाया जाए।" कभी-कभी इंसान बस चाहता है कि कोई उसे सुने, उसके दर्द को महसूस करे, बिना कोई नसीहत दिए। वह बस चाहता है कि कोई उसके साथ बैठे और कहे—"हाँ, मैं समझता हूँ तुम्हें, जैसा तुम हो वैसा ही।" पर जब वह व्यक्ति आपको सुधारने की नी...

दिल की खामोशी और जीवन की सच्चाई

दिल की खामोशी और जीवन की सच्चाई (A Soul-Touching Reflection) कभी-कभी जीवन के शोर में सबसे स्पष्ट आवाज़... खामोशी होती है। वो खामोशी जो शब्दों से परे होती है – जो सीधे अंतरात्मा से बात करती है। जब सब कुछ पास होकर भी अधूरा लगे, तो समझो रूह किसी और ऊँचाई को छूना चाहती है। "जब दिल खामोश हो जाए, तो समझो वह सबसे गहरा सच बोल रहा है।" हम रोज़ हँसते हैं, बोलते हैं, मिलते हैं... पर क्या कभी अपने भीतर झाँक कर देखा है? वहाँ एक मासूम दिल बैठा है, जिसने बचपन से अब तक सिर्फ एक ही चीज़ चाही है – सच्चा प्रेम। ना वह दिखावे का प्रेम, ना शर्तों में बँधा हुआ प्रेम, बल्कि एक निर्विकार, निर्मल, रूहानी प्रेम , जो बिना कुछ माँगे, बस बाँटना जानता है। "सच्चा प्रेम वह है जो छूता भी नहीं, लेकिन फिर भी दिल को बदल देता है।" हम अपने संघर्षों में इतने उलझ गए हैं कि जीवन की असल सुंदरता छूट गई — किसी की आँखों में सुकून देना, किसी के आँसू पोंछ देना, और बिना बोले किसी का हाथ थाम लेना। "जिसने दूसरों के दर्द को बिना कहे समझा, वही इंसानियत की ऊँचाई पर है।" ...

बस किसी ने नहीं सुनी मेरी अंतरात्मा

बस किसी ने नहीं सुनी मेरी अंतरात्मा… कभी-कभी लगता है जैसे मैं एक ऐसे कमरे में हूँ जहाँ सब कुछ है—दीवारें, छत, खिड़की, दरवाज़ा भी… पर फिर भी कोई दस्तक नहीं देता। हर ओर चुप्पी है—भीतर भी, बाहर भी। मैंने कोशिश की कि कोई मेरी आँखों में झाँके… पर लोग सिर्फ चेहरों को पढ़ते हैं, अंतरात्मा की चुप्पी को नहीं। मैंने मुस्कराहट ओढ़ ली, ताकि कोई पूछे—"सब ठीक है न?" पर सबने मान लिया कि मैं सच में ठीक हूँ। सच कहूँ? मैं थक गया हूँ। हर बार खुद को समझाने से… हर बार सबके सामने मज़बूत दिखने की कोशिश से… हर बार खुद के आँसू खुद ही पोंछने से… कभी लगता है—क्या कोई है जो मेरे भीतर की आवाज़ को सुन सके? कोई, जो मुझे बिना बोले समझ सके? शब्द अब कम पड़ते हैं , लेकिन आंसू कभी नहीं थकते। भीड़ है, रिश्ते हैं, आवाजें हैं… पर कोई “मेरा” नहीं लगता। फिर भी मैं जी रहा हूँ… क्यों? क्योंकि कहीं न कहीं, दिल के किसी कोने में एक उम्मीद अभी बाकी है… शायद कोई एक दिन आएगा— जो चुप रहेगा, पर सब समझ जाएगा… जो सलाह नहीं देगा, बस पास बैठ जाएगा… जो मेरी अंतरात्मा की थकान , मेरी चुप्पी को पढ...

बचपन की तलाश: घर से स्कूल तक

बचपन की तलाश: घर से स्कूल तक ~ अनुभव, संवेदना और शिक्षा जगत का मौन प्रश्न प्रस्तावना कभी-कभी जब बच्चों को देखकर उनके हावभाव और चुप्पी को समझा जाता है, तो एक प्रश्न बार-बार दिल को छू जाता है:  "जो ये बच्चे शिक्षक से प्राप्त करते हैं, वो उनके पेरेंट्स क्यों नहीं दे पाते?"  क्या एक शिक्षक, एक पिता से अधिक संवेदनशील हो सकता है? क्या एक बाहरी व्यक्ति, उस अंतरंगता और स्नेह को दे सकता है, जो माता-पिता का अधिकार माना जाता है? यह प्रश्न केवल किसी एक व्यक्ति का नहीं है, यह हर उस संवेदनशील मन का है जो बच्चों को जीने की प्रेरणा देता है। "बच्चा वही नहीं होता जो बोलता है, वह होता है जो चुप रहकर सब सहता है। उसे समझने के लिए शब्द नहीं, संवेदना चाहिए।" 1. जिम्मेदारी: माता-पिता अक्सर बच्चे के पालन-पोषण को एक कर्तव्य की तरह निभाते हैं, जबकि शिक्षक—विशेषकर जो सेवा-भाव से जुड़े होते हैं—उसे समर्पण की तरह जीते हैं। जहाँ एक ओर कुछ पेरेंट्स अपने बच्चे से अधिक उसकी पढ़ाई या "परफॉर्मेंस" पर ध्यान देते हैं, वहीं एक संवेदनशील शिक्षक बच्चे की भीतर की पीड़ा, मौन की पु...

डर नहीं, दिशा दें — पढ़ाई को बोझ नहीं, प्रेरणा बनाएं

डर नहीं, दिशा दें — पढ़ाई को बोझ नहीं, प्रेरणा बनाएं ~ आनंद किशोर मेहता आजकल की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में माँ-बाप खुद भी परेशान हैं, और अनजाने में अपने इस तनाव को बच्चों के दिलों में एक खतरनाक ज़हर की तरह उतार रहे हैं। यह ज़हर पढ़ाई के नाम पर डर पैदा करता है — इतना गहरा डर, जो बच्चों के जीवन को ही निगल जाता है। "बच्चा हो या फूल — दोनों को खिलने के लिए स्नेह और समय चाहिए, सज़ा नहीं।" पढ़ाई के नाम पर अपनी अधूरी इच्छाओं को बच्चों के भविष्य पर थोप देना और फिर उनसे वही पूरा करवाने की ज़िद में बच्चों पर अत्यधिक दबाव बनाना — यह उनके मासूम मन पर अत्याचार के समान है। नतीजा? आत्म-हत्या जैसे भयावह रास्ते। "जो शिक्षा डर से शुरू होती है, वह सिर्फ डर को बढ़ाती है — ज्ञान को नहीं।" बचपन में ही बच्चों से खेलने की आज़ादी छीन ली जाती है। मोबाइल हाथ में देकर हम उन्हें शारीरिक और मानसिक विकास से वंचित कर देते हैं। जब बच्चा होमवर्क नहीं करता, तो उसे डांटते हैं, डराते हैं, सज़ा देते हैं — चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक। और यह सब एक ऐसी उम्र में जब उसका मन हर चोट को गहराई से ...

अकेले खड़े रहना: हिम्मत की सबसे ऊँची उड़ान

अकेले खड़े रहना: हिम्मत की सबसे ऊँची उड़ान "जब कदम लड़खड़ाते हैं और कोई साथ नहीं होता, तब भी अगर तुम खुद को संभाल पाओ—तो वही सच्ची बहादुरी है।" कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसी राह पर ले आती है जहाँ न कोई आवाज़ होती है, न कोई परछाईं। हर दिशा एक सन्नाटे से भरी होती है, और हर मोड़ पर अकेलापन घात लगाकर बैठा होता है। ऐसे में हम सिर्फ एक साथ की तलाश करते हैं — एक कंधा, एक मुस्कान, एक आवाज़, जो कहे "मैं हूँ न।" लेकिन जब वह भी नसीब न हो, और तब भी अगर इंसान खुद को गिरने से रोक ले — तो वह कोई साधारण क्षण नहीं होता, वह एक भीतर की क्रांति होती है। यह वही क्षण है जब इंसान को समझ आता है कि उसकी सबसे बड़ी ताकत न किसी बाहरी सहारे में है, न तालियों में, न ही किसी अपनत्व में—बल्कि खुद की सोच, अपने विवेक और उस चुपचाप उठते साहस में है, जो कहता है: "डटे रहो, क्योंकि ये लड़ाई तुम्हारी सबसे असली जीत को जन्म देगी।" जब कोई नहीं होता, तब खुद का होना सीखो अकेले खड़े रहना कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ा आत्म-विकास है। यह वह किला है जिसे इंसान अपने अंदर बनाता है—चुपचाप,...